Tuesday, July 29, 2008

बयान जारी कर दूं 'सर`

नेता जी अपनी पर्सनल कुर्सी पर बैठे संसद में नोटों की गडि् डयां उछालने के बाद हुए घाटे के बारे में सोच ही रहे थे कि इतने में सेके्रटरी ने आकार बताया। सर! फंला-फंला राज्यों में बम धमाके हो गए। बयान जारी करना चाहिए। लेकिन, नेता जी इससे भी जरूरी मसले पर मंथन करने में मशगूल थे। वे सोच रहे थे, इस बार तो तीन सिरफिरे सांसदों ने संसद में नोटों की गडि् डयां उछाल कर पूरा खेल ही खत्म कर दिया। मेरी तो २५ कराे़ड में डीलिंग लगभग तय हो चुकी थी। पर, कमबख्तों ने ऐन मौके पर खेल बिगाड़ दिया। अब पिछले साढ़े चार सालों में इमेज भी कुछ ऐसी बनी है, अगले चुनाव में पहले तो टिकट मिलेगा नहीं और अगर मिल भी गया तो जनता मुझे घास डालेगी नहीं। लगे हाथ जाते-जाते कुछ कमाई हो जाती तो अगले कुछ साल आराम से कट जाते। इतने में सेके्रटरी ने फिर नेता जी को संबोधित किया। सर आपने कुछ बताया नहीं, या करना है? नेता जी ने भी मुंह में भरे मसाले की पिचकारी टेबल के नीचे रखे पीपदान में मारी और सेके्रटरी को घूरने वाली नजरों से देखते हुए कहा। जितनी देर तुमने मेरा दिमाग खाया है, इतनी देर अगर तुम पुराना जारी किया बयान ढूंढने में लगाते तो वह अब तक अखबार के दफ्तरों में पहुंच भी जाता। या तुम्हें पता नहीं इस देश में बम फटना अब आम बात हो गई। प्रेस वाले भी बिना विज्ञप्ति पहुंचाए ऐसे मौकों पर खुद-ब-खुद ही हमारी ओर से बयान जारी कर देते हैं। फिर तुम तो कई सालों इस 'जीव` के साथ काम कर रहे हो। बेटा शियासत के बाजार में जनतंत्र, लोकतंत्र और प्रजातंत्र के बाद अब नया उत्पाद आया है 'नोटतंत्र`। मुझे इस नए विज्ञान के बारे में सोचने दो। बम-वम तो फटते रहते हैं। आज न सही कल बयान जारी कर देंगे। वैसे भी इस काम में हमारी बिरादरी के अन्य जीव बहुत तेज हैं, अब तक वे सारा काम कर चुके होंगे। उन्हें पता है कि देश में ये काम कौन लोग कर रहे हैं। वह उनको राजनैतिक भाषा में अब तक गाली भी दे चुके होंगे, आंसू भी बहा लिए होंगे, संवेदना....बगैरा-बगैरा सबकुछ कर चुके होंगे। अब तुम बम-वम की बात छाे़डो और ये सोचो आने वाले चुनाव में किस पार्टी की गोद में बैठना है। वैसे भी विश्वस्त सूत्रों से पता चला है कि मुझे पार्टी लाल कार्ड दिखाने जा रही है। इस बात की चिंता करो कि मैं फिर से सांसद बनकर कैसे नोटतंत्र का चिंतन करूं। इतना सुनने के बाद भी जब सेके्रटरी वहीं खड़ा रहा तो नेता जी ने सोचा बच्चे को थाे़डा और ज्ञान दे ही दिया जाए। नेता जी बोले, हम भारतीय हैं। अहिंसा परम धर्मम् । हम अमेरिका जैसा अधर्म वाला काम नहीं कर सकते। उसके यहां दो धमाके या हुए। उसने दुनिया के न शे में दो देशों का तख्ता ही पलट दिया। हम गांधी जी के देश में रहते हैं, पहले एक राज्य में बम फाे़डा अब दूसरे में कल तीसरे में...। या फर्क पड़ता है। हम सौ कराे़ड की आबादी पार कर चुके हैं। थाे़डा बहुत कम हो भी जाएं तो या हुआ। चिंता इस बात की करो कि राजनीति की इस बिसात में अब कौन सी गोटी चली जाए, ताकि मैं फिर से सांसद बन जाऊं और देशकाल के चिंतन में डूब जाऊं।

Saturday, July 26, 2008

इस बात से मैं तुमसे नाराज हूं सानिया

दूसरे लोगों की तरह मैं भी सानिया मिर्जा का बहुत बड़ा फैन हूं। टेनिस के बारे में बहुत ज्यादा तो नहीं जानता, लेकिन इस खेल में पहली बार किसी भारतीय महिला खिलाड़ी ने इतनी ऊंचाई छुइंर् तो वह सानिया ही थी। सानिया की इस कामयाबी के लिए मेरा और सौ कराे़ड भारतीयों का सलाम। लेकिन, एक समय था जब हम हर दिन सानिया केचढ़ते सूरज का देख रहे थे, जबकि पिछले कुछ समय से हैदराबादी बाला लगातार खराब फार्म से जूझ रही है। तमाम विवादों केबाद भी हम सानिया के साथ थे। योंकि हम जानते हैं कि चढ़ते सूरज को देखकर जहां कुछ लोग उसे सलाम करते हैं, वहीं कुछ लोगों के लिए उसकी तेज रोशनी आंख की किरकिरी का कारण भी बन जाती है। खैर ये तो हुई कल की बात।
आज सुबह उठते ही अमर उजाला के ताजा अंक में (26जुलाई) एक समाचार पड़ा। मुख पृष्ठ पर 'सानिया की कोच बन जाएंगी मम्मी` नामक शीर्षक समाचार पढ़कर दुख हुआ। अटपटे से लगने वाले इस शीर्षक का सार यह है कि 12 दिन बाद बीजिंग में शुरू होने वाले ओलंपिक खेलों में भारतीय दल की सूची में कई महत्वपूर्ण व्यि तयों का नाम काटकर सानिया की मम्मी का नाम उनके कोच के रूप में प्रस्तुत किया गया है। जो सरासर गलत और सानिया की आइडल छवी को धूमिल करने वाला है। जब-जब सानिया के साथ विवाद जु़डे, कुछ कट् रपंथियों को छाे़ड हर भारतीय ने सानिया का साथ दिया। फिर चाहे टेनिस कोट में छोटे कपड़े पहनकर उतरने की बात हो या किसी विज्ञापन की शूटिंग के दौरान खड़ा हुआ बवाल। लेकिन, ताजे विवाद में कम से कम मैं सानिया के साथ नहीं हूं। इस शीर्षक में छिपे सार के बाद विवाद उठना लाजमी है। विवाद केबाद हो सकता है, सूची से सानिया की मम्मी का नाम कट जाए। लेकिन, मुझे हैरत है उन लोगों की सोच पर, जो उच्च पदों पर बैठकर भी ऐसे हास्यास्पद फैसले लेते हैं। या वे लोग जनता को मूर्ख समझते हैं। देश केयुवाआें की प्रेरणा बनी सानिया, या नहीं जानती कि यह गलत है। अगर नहीं जानती तो मैं यही कहना चाहूंगा, सानिया व त केसाथ तुम्हारी उम्र और शोहरत तो बढ़ी है, लेकिन अब तुम्हारी सोच छोटी हो गई।
तमाम शिकवोंं केबाद भी एक भारतीय होने के नाते मैं सानिया को शुभकामनाएं देना चाहूंगा। वह बीजिंग जाए (उसकी मम्मी भी बीजिंग जाए, लेकिन अपना टिकट खरीद कर) और देश केलिए गोल्ड मेडल जीतकर लाए। ताकि मेरी सोच की तरह वह सौ कराे़ड भारतीयों से गर्व से कह सके सानिया डूबते सूरज का नाम नहीं।

" WAQT NAHI "


Har khushi Hai Logon Ke Daman Mein,Par Ek Hansi Ke Liye Waqt Nahi.
Din Raat Daudti Duniya Mein,Zindagi Ke Liye Hi Waqt Nahi.
Maa Ki Loree Ka Ehsaas To Hai,Par Maa Ko Maa Kehne Ka Waqt Nahi.
Saare Rishton Ko To Hum Maar Chuke,Ab Unhe Dafnane Ka Bhi Waqt Nahi.
Saare Naam Mobile Mein Hain,Par Dosti Ke Lye Waqt Nahi.
Gairon Ki Kya Baat Karen,Jab Apno Ke Liye Hi Waqt Nahi.
Aankhon Me Hai Neend Badee,Par Sone Ka Waqt Nahi.Dil Hai Gamon Se Bhara Hua,Par Rone Ka Bhi Waqt Nahi.
Paison ki Daud Me Aise Daude,Ki Thakne ka Bhi Waqt Nahi.
Paraye Ehsason Ki Kya Kadr Karein,Jab Apane Sapno Ke Liye Hi Waqt Nahi.
Tu Hi Bata E Zindagi,Iss Zindagi Ka Kya Hoga,
Ki Har Pal Marne Walon Ko,Jeene Ke Liye Bhi Waqt Nahi.......

Friday, July 25, 2008

अपनी बात

मैं उन लोगों से सख्त नफरत करता हूं, जो बनावटी दुनिया में जीने में विश्वास रखते हैं, झूठ बोलते हैं और दूसरों की टांग खिंचकर अपना उल्लू सीधा करते हैं। ऐसे लोग अकसर अपनी ही बात से मुकर जाते हैं, उन्हें सिर्फ दूसरों की गलतियां दिखाई देती हैं, अपनी तमाम मूर्खताआें पर वह किसी भोलेपन की चादर में ओढ दूसरों केसामने नासमझी को ढोंग करते हैं। खुद अगर कोई नामसझी करें तो वह उनका भोलापन होता है और दूसरा कोई करे तो वह बड़ी गलती हो जाती है। ऐसे लोगों को जो काम आता है, वह बड़ा काम होता है और जो उन्हें नहीं आता वह सिर्फ काम होता है। या कई बार कुछ होता ही नहीं है। वे तमाम बातें जानते हुए भी दूसरों के सामने नासमझ बनने का नाटक करते हैं और व त आने पर पलटवार करते हैं। ऐसे व्यि तयों की नजर में कोई भी व्यि त तब तक अच्छा होता है, जब तक अमुक व्यि त के जरिए उनके निहित स्वार्थों की पूर्ति होती है।
इन सब बातों के बावजूद मेरा मानना है कि ऐसे व्यि त भले ही दूसरे व्यि तयों को मानसिक तनाव दें, लेकिन वह खुद भी कभी चैन से नहीं रहते। वह हमेशा एक डरा-डरा सा जीवन जीते हैं, परेशान रहते हैं और दुनिया को मूर्ख समझने की मूर्खता कर खुद सबसे बड़े मुर्ख बन रहे होते हैं।
एक मित्र को सलाहऱ्यर्थात में जिओ, अपनी कमियों को स्वीकार करते हुए उन पर अमल करो, योंकि मैं जनता हूं तुम अंदर से इतने बुरे भी नहीं।

Thursday, July 24, 2008

Kabhi Usse bhi

Kabhi usse bhi meri yaad satati hogi
Apni aankhon mein mere khawaab sajati hogi
Wo jo har waqt khayaalon mein basi rehti hai
Kabhi to meri bhi socho mein kho jaati hogi
Wo jiski raah mein palkein bichhi rehti hai
Kabhi mujhe bhi apne paas bulati hogi
Labon par rehti hai wo har pal hansi bankar
Tasawar se mere, wo bhi muskuraati hogi
Wo jo shaamil hai mere geet mere naghmo mein
Kabhi tanhai mein mujhko gun gunaati hogi
Jiske liye mera dil beqaraar rahta hai
Mere liye apna chain bhi gawanti hogi
Jisse izhaar-e-wafa har pal karna chahoon
Kabhi iqraar to wo bhi karna chahti hogi
Jiske liye meri har raat hai karwat karwat
Kabhi to use bhi neend na aati hogi
Jiski ulfat ki shama se hai mera dil roshan
Meri chahat ke wo bhi deep jalati hogi
Ghame-e-firaaq mera hi muqadar hai ya phir
Meri judaai use bhi yuhi rulati hogi

Saturday, July 19, 2008

जब मैंने खोली पोल

मैं उस समय दसवीं कक्षा का छात्र था। स्कूल में एक दिन गुरुजी ने बताया कि सरकार ने ग्रामीण अशिक्षित लोगों को शिक्षित करने के लिए सर्व शिक्षा अभियान शुरू किया है। जो बच्चे इसमें भागीदारी करना चाहें, वे अपना नाम लिखवा सकते हैं। उन्होंने स्कीम की विस्तृत जानकारी दी और साथ ही यह भी बताया कि इस अभियान में सफल भागीदारी करने वाले बच्चों को सरकार द्वारा विशेष तौर पर प्रोत्साहित किया जाएगा। इतना ही नहीं इस काम के लिए पठन सामग्री भी सरकार ही उपलब्ध कराएगी। योजना का खाका अपने दिमाग में बिठा मैंने सबसे पहले अपना नाम लिखवा लिया। मुझे पता था मेरी गांव में खासकर २० से ३० महिलाएं ऐसी थी, जिन्हें अपना नाम भी लिखना नहीं आता था। सोचा पढ़ाई से अलग कुछ काम है, मजा आएगा और स्कूल में गुरुजी की शाबासी भी मिलेगी। सरकार या प्रोत्साहित करेगी, उस उम्र में इतना सोच पाना शायद मेरी समझ से बाहर था। लेकिन, फिर भी मैं उत्साहित था। अगले ही दिन से मैं काम में लग गया। स्कूल से किताबें, कापियां, स्लेट, ब्लैकबोर्ड और कुछ चार्ट (सभी वस्तुएं किसी भी एक केंद्र को चलाने के लिए ब्लाक स्तर पर उपलब्ध कराई जाती थी) ले आया। गांव में घर-घर जाकर बड़े-बू़ढों का समर्थन हासिल कर करीब २५ महिलाआें को केंद्र में आने के लिए राजी कर लिया। समय भी उनकी सुविधानुसार चुना गया, जब वे शाम को घास-दूध से निपट जाती थी और खाना बनाने में कुछ समय बाकी होता था। उत्साह पूर्वक मैंने केंद्र शुरू कर दिया। इसके बाद करीब चार माह तक अपनी बड़ी बहन के साथ मिलकर मैंने उत्साहपूर्वक केंद्र चलाया और इसके परिणाम भी सकारात्मक रहे। केंद्र में आने वाली लगभग सभी महिलाएं अपना नाम लिखना सिख चुकी थी। इतना ही नहीं कई महिलाआें ने अपेक्षाकृत परिणाम दिए और वे अक्षरों को जाे़डकर पढ़ने भी लगी। दूध का हिसाब कैसे रखा जाता है, बाजार में सामान को मोल भाव कैसे किया जाता है और बच्चों से हिसाब कैसे लिया जाता है, तमाम बुनियादी बातों को मैंने उन्हें सिखाने का प्रयास किया और काफी हद तक सफल भी हुआ।
ये थी मेरी रुचि की कहानी, जिसने मुझे परम सुख दिया। मैं अपने काम से खुश था। गांव में मुझे इस काम के लिए सभी की शाबासी और इज्जत मिली। लेकिन ये कहानी यहीं खत्म नहीं होती।
योजना का पहला चरण खत्म होने के बाद उस दिन ब्लाक ऑफिस में एक कार्यक्रम आयोजित किया गया था। जिसमें डीएम से लेकर तमाम प्रशासनिक अधिकारी मौजूद थे। समारोह में योजना में शामिल लोगों और बच्चों के अनुभव साझा किए जाने थे, इसके अतिरि त उन बच्चों को पुरस्कृत किया जाना था, जिन्होंने इस काम में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। सभी लोगों ने मंच पर चढ़कर अपनी बात कही। इसके बाद हमारे स्कूल की बारी आई। मेरी गुरुजी ने मुझे अपनी बात कहने के लिए मंच पर भेज दिया। किसी जलसे में मंच पर चढ़कर माइक पर बोलना मेरे लिए पहला अनुभव था। मेरी टांगे कांप रही थी और माथे पर पसीना आ रहा था। माइक हाथ में लिया तो वह भी कांपने लगा। समझ में नहीं आ रहा था कहां से शुरू करूं। पीछे से किसी ने मेरी स्थिति भांपते हुए तुरंत मुझे एक पानी का गिलास पकड़वा दिया। जिसे मैं एक सांस में पी गया। पानी ने जैसे टॉनिक का काम किया और फिर मैंने बोलना शुरू किया। शुरूआत की भूमिका के बाद मैं रौ में बहता चला गया और बहुत कुछ कह गया। लेकिन बात वहां पर अटक गई, जब मैंने कहा इन पूरे चार महीनों के दौरान कोई अधिकारी या इस योजना से जु़डा कोई व्यि त केंद्र पर झांकने तक नहीं आया। आशय यह था कि सरकार ने तमाम पठन सामग्री तो बांट दी, लेकिन उसका सही इस्तेमाल भी हो रहा है या नहीं इसे देखने वाला कोई नहीं था। तमाम उच्च अधिकारियों के सामने अपनी पोल खुलती देख निचले दर्जें के अधिकारी या शायद कर्मचारी में से कोई बीच में ही बोल उठा 'बेटा हम आए थे, तमाम सेंटर चेक किए जाते थे`। इसी बीच मेरे मुंह से कुछ ऐसा निकला, जिसने व्यवस्था को लेकर मेरे अंदर जमा हुए गुस्से का खुलेआम इजहार कर दिया। ज्वालामुखी फूट पड़ा और मेरे मुंह से निकला 'घंटा आया था कोई`। इसके बाद जो हुआ, वह कुछ अजीब था और कुछ सुखद। अजीब यूं कि पंडाल में बैठे सभी लोग हंसने लगे और मेरे गुरुजनों का सिर झुक गया और सुखद यूं हुआ कि इसके बाद डीएम साहब ने उसी 'घंटे` को केंद्रबिंदु बनाकर उ त योजना से जु़डे सभी लोगों की लंबी-चाै़डी लास ली और मुझे मंच पर सच्चाई रखने के लिए लगे हाथ बधाई भी दे डाली। व्यवस्था को लेकर कच्ची उम्र में उभरे उस रोष का भले ही मैंने मंच पर इजहार कर दिया था, लेकिन यकिन मानिए किसी की पोल खोलना उस व त मेरा मकसद नहीं था।