Sunday, August 31, 2008

रामजी भाई की परेशानी

विनोद मुसान
गत दिनों मचे सियासी घमासान के बाद रामजी भाई 'गांव वाले` बड़े हैरान-परेशान हैं। उनकी परेशानी का सबब सियासत के अखाड़े में हो रही उठापठक नहीं है। वे इस बात से भी परेशान नहीं हैं कि राजनीति के इस खेल के खिलाड़ी किस कदर मर्यादा को ताक पर रख एक पाले से दूसरे पाले में जा रहे हैं। ...और जहां तक 'नोटतंत्र` (संप्रग सरकार की ताजा उपलब्धि) की बात है, इसे भी वे इतना बुरा नहीं मानते। उनके अनुसार ये विधा तो इस खेल में पूर्व से प्रचलित थी। फर्क सिर्फ इतना है, पहले ये खेल परदे के पीछे खेला जाता था, लेकिन अब टीवी कैमरों की टीआरपी ने इसे दर्शक उपलब्ध करा दिए। रामजी भाई की समस्या इससे भी ज्यादा 'टेि नकल` और देशकाल के साथ खुद उनके भविष्य से जु़डी है।
आप सोच रहे होंगे ये रामजी भाई हैं तो 'गांव वाले` और इतनी बड़ी-बड़ी बातें कर रहे हैं। आखिर ये हैं किस खेत की मूली? तो चलो रामजी भाई की समस्या से पहले उनका संक्षिप्त परिचय ही करा दिया जाए। दरअसल, रामजी भाई गांव के पढ़े-लिखे वे नौजवान हैं, जिन्हें आप और हमारी तरह ही देश के भविष्य की चिंता सताती रहती है। लेकिन, ग्रामीण पृष्ठ भूमि से जु़डे होने के चलते लोग उनकी बातों को उतनी तबज्जो नहीं देते, जितनी उनके अनुसार उन्हें मिलनी चाहिए। ये उनकी दूसरी समस्या है।
अब बात करते हैं मुद् दे की। करार के मुद् दे पर 'हाथ` और 'लाल झंडे` की बीच हुई तकरार आखिर उस माे़ड पर आ पहुंची, जहां बैटिंग कर रहा हाथ आउट होते-होते बचा। इसके बाद तो जैसे लाल झंडे का रंग और सुर्ख हो गया। उसने नया शगूफा छाे़डा और केंद्रीय दरबार की गद् दी में 'गजराज` को बैठाने की बात कह डाली। बड़े-बडे दिग्गजों के कान खड़े हो गए। उन्हें ताउम्र सियासत के खेल का अनुभव छोटा लगने लगा। उनके दिन का चैन और रातों की नींद उड़ गई। ऐसे में हमारे रामजी भाई 'गांव वाले` का परेशान होना भी लाजमी था। आखिर लोकतांत्रिक देश में चिंतन करने का उनका भी हक है। यह बात दीगर है कि इस देश के लाखों-कराे़डों पढ़े-लिखे अन्य नौजवानों की तरह रामजी भाई भी सिर्फ 'सोचकर` ही अपने कर्तव्य की इतिश्री कर देते हैं। वे चाहते हुए भी कुछ ऐसा नहीं कर पाते कि 'मायाजाल` में उलझने के बजाए उससे बाहर निकलकर दूसरों के सामने ऐसी युि त पेश करें, जिससे वे खुद की की नैय्या और साथ बैठे दूसरे सहयात्रियों को भी पार लगा सकें।
चलते-चलते बताता चलूं कि सियासतदांजी में पैनी नजर रखने वाले रामजी भाई किसी पार्टी विशेष से ताल्लुक नहीं रखते। उन्हें 'हाथी-घाे़डों` से भी बैर नहीं। न ही वे इस बात की परवाह करते हैं कि 'दरबारे दिल्ली` तक कौन व्यि त 'साइकिल` पर बैठकर आया या 'कार` में या उसके हाथ में किस रंग का झंडा था। उन्हें तो फिक्र है बस इस बात की राजदुलारा 'राज` तो करे, लेकिन उसे 'दुलार` करने वाले समुदाय विशेष के लोग न होकर वे लोग हों, जो कहलाते हैं इस देश के 'आम आदमी`।

Monday, August 18, 2008

आखिर जमीन का एक कतरा ही तो है

छोटी-छोटी बातों पर बयान जारी करने वाले हमारे नेता जम्मू-कश्मीर के हालात पर मौन हैं। जबकि, बात यहां तक आ पहुंची है कि श्रीनगर में हमारे राष्ट ्रीय ध्वज का अपमान किया जा रहा है। वहां की इमारतों पर पाकिस्तान का झंडा लहराया जा रहा है। तुष्टि करण की राजनीति का शिकार देश के नेता इस मसले पर कुछ भी बोलने से कतरा रहे हैं। उन्हें डर है उनके मुंह से निकले कुछ शब्द उनके वोट बैंक में सेंधमारी का कारण न बन जाएं। जबकि, जम्मू के हालात दिन-ब-दिन बदतर होते जा रहे हैं। जमीन के एक टुकड़े के लिए दो संप्रदायों के लोग आमने-सामने हैं। मीडिया में आ रही खबरों में साफ दिखाई दे रहा है कि वहां का आम आदमी इस दिनों किन हालात में जी रहा होगा। भूमि हस्तांतरण मुद् दे की आड़ में राजनीतिक रोटियां सेेंकी जा रही हैं। आम आदमी को हथियार बनाकर इस्तेमाल किया जा रहा है। इस मुद् दे की आड़ में उन तमाम बातों को अंतरराष्ट ्रीय मंच पर लाने का प्रयास किया जा रहा है, जिनकी कोशिश पहले भी कई बार होती रही हैं। बात साफ है अलगावादी लोग इस बात को उछालना चाहते हैं कि कश्मीर में मुसलमान खुश नहीं हैं, उन पर अत्याचार हो रहे हैं। दूसरा, वे कश्मीर के सामाजिक, राजनैतिक और धार्मिक ताने-बाने को एक पंथीय रूप देना चाहते हैं। कश्मीर के लोगों को भी इस देश केप्रत्येक नागरिक की तरह वे सभी अधिकार प्राप्त हैं, जो भारतीय संविधान में दर्ज हैं। लेकिन, कुछ अलगाववादी लोग धर्म की आड़ लेकर वहां की जनता को बहका रहे हैं। उनका एक ही मकसद है, भारत की अंखडता को छिन्न-भिन्न करना। वे नहीं चाहते की इस देश में एकता कायम रहे।
मेरा मानना है कि इस मुद् दे पर देश के बौद्धिक वर्ग को आगे आकर पहल करनी चाहिए। हिंदू-मुसलमान भाईचारे को कायम रखते हुए दोनों सुमदाय केलोगों को मिलजुलकर विवाद को सुलझाना चाहिए। जम्मू-कश्मीर आज नहीं, आजादी केबाद से ही जल रहा है। इसका स्थायी समाधान है, लेकिन राजनैतिक लोगों से इसकी अपेक्षा करनी बेमानी है। योंकि अगर जम्मू-कश्मीर और वर्तमान भूमि हस्तांतरण जैसे मुद् दे समय पर सुलझा लिए गए, तो कई राजनेताआें की दुकाने बंद हो जाएंगी।
दूसरा राष्ट ्रीय स्वाभिमान के प्रतीक तिरंगे का अपमान करने वाले को कतई बख्शा नहीं जाना चाहिए। फिर चाहे वह किसी समुदाया का यों न हो। इसी तिरंगे की आन बचाने को हमारे फौजी आए दिन सीने पर गोलियां खाते हैं। लेकिन, तिरंगे को जमीन पर तक नहीं गिरने देते। फिर यह बात कैसे बर्दाश्त किया जा सकत है कि कोई इसी देश में रहते हुए देश के झंडे को जलाए। मुजफ्फराबाद रैली के दौरान और आगे-पीछे भी जम्मू-कश्मीर पर देश की जनता ने टीवी और समाचारों पत्रों में तिरंगे को जलाने की तस्वीरें साफ देखीं। उनकी मुठि् ठयां भिंच गइंर्। लेकिन, वे चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते। योंकि यह खेल आम आदमी की पहुंच से बाहर है। देश का आम आदमी खिन्न है, वह धरना-प्रदर्शन तो कर सकता है, चिल्ला सकता है, लेकिन उसके हाथ में वह ताकत नहीं है, जो सीधे तौर पर ऐसे लोगों को मुंहताे़ड जवाब दे।

Saturday, August 9, 2008

निरंतरता

पंछी आते हैं आंगन में मेरे
और
घरौंदा बना लेते हैं
आम की उस डाल पर
जो दादा जी ने लगाया था
तब वे बू़ढे न थे
उनकी मूछों में ताव
और
भुजाआें में बल था
उनकी छांव में
एक परिवार बसता था
व त गुजरा
नन्हा पौधा बड़ा हो गया
और दादा जी बूढे हो चले
लेकिन
उनका लगाया नन्हा पौधा
आज भी खड़ा है आंगन में मेरे
वही दादाजी की मूछों वाला ताव
और अपनी शाखाआें में बल लिए
जो देता है फल
और हर आने जाने वाले को छांव
सावन में जब बच्चे झूला डालते हैं
उसकी शाखाआें पर
तब
उठती किलकारियां
तो झूम उठती हैं उसकी हर एक पत्तियां
कभी मैं भी झूलता था उसकी शाखाआें पर
झूला डाल, ...और अब मेरा बच्चा
मैं जानता हूं व त केसाथ
आम का ये पे़ड
जो लगाया था दादाजी ने मेरे
उन्हीं की तरह एक दिन बू़ढा हो जाएगा
लेकिन
खुशी होती है
उसके आस-पास उगते
उन नन्हे पौधों को देखकर
जो अब मैनें लगाए हैं
ये पौधे भी
इसी आम के पे़ड की तरह
एक दिन वृह्द आकार ले लेंगे
और
और फिर डालेंगी आने वाली पीढ़ियां इन पर झूला
मेरी तरह, मेरे बच्चे की तरह और....!
इति।

Friday, August 8, 2008

सिमी से इतना मोह यों ?

एक समाचार : सुप्रीम कोर्ट ने स्टूडेंट् स इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (सिमी) पर प्रतिबंध हटाने संबंधी दिल्ली हाईकोर्ट के विशेष ट्रिब्यूनल के आदेश पर रोक लगा दी।
अब आगे का खेल देखिए, अभी यह फैसला अदालत से बाहर भी नहीं आया था, हमारे राजनीतिज्ञों ने सिमी के हक में बयान तक जारी कर दिए। सपा प्रमुख मुलायम सिंह की मानें तो सिमी पर प्रतिबंध लगाने की बजाए राष्ट ्रीय स्वयं सेवक संघ पर प्रतिबंध लगाना चाहिए। उनकेशब्दों में 'जब उत्तर प्रदेश में मेरी सरकार थी तो सिमी पर कभी प्रतिबंध नहीं लगाया गया।` वहीं राजनीतिज्ञों की जमात में इस विद्या के पंडित कहे जाने वाले 'ताऊ` लालू प्रसाद यादव का कहना है कि सिमी पर प्रतिबंध की जरूरत ही नहीं थी। प्रतिबंध लगाना ही है तो शिव सेना पर लगाओ, दुर्गा वाहिनी पर लगाओ।
इस संगठन का नाम (सिमी) देश के बच्चे-बच्चे की जुबान पर इसलिए नहीं चढ़ा कि इस संगठन ने अपने नाम के अनुरूप स्टूडेंट् स की भलाई के लिए किए गए अपने कामों से झं़डे गाढ़ दिए। बल्कि जब भी इस संगठन का नाम सुर्खियों में आया, तब-तब सिमी के साथ आतंक शब्द की गूंज साफ सुनाई दी। आज भी यह संगठन भारत में आतंकी गतिविधियों को अंजाम देने वाली एक प्रमुख संस्था के रूप में जाना जाता है। देश में घट रही तमाम आतंकवादी घटनाआें में पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई के बाद अगर किसी संगठन का नाम आता है तो वह सिमी ही है। जो इस्लामिक स्टूडेंट् स मूवमेंट् स केनाम पर इस देश की नौजवान पीढ़ी की रगों में दहशतगर्दी का जहर घोल रही है। इस देश का राशनकार्ड लेकर इस देश की थाली में खाकर इसी देश केनौजवानोंं को बाढ़ बनाकर इस संगठन केकार्यकर्ता देश को खोखला करने में जुटे हैं।
ऐसे में अगर हमारे राज नेताआें के बयान इस संगठन के हक में आते हैं तो दुख होता है। दुख होता है यह सोचकर कि आखिर इस देश में हो या रहा है? जनता इन नेताआें को चुनकर संसद में भेजती है। इसलिए कि वे जनहित की बात करेंगे, देशहित की बात करेंगे। लेकिन, अगर राजनीति से प्रेरित इस तरह के काम हमारे राजनेता करने लगें तो फिर अभागी जनता कहां जाए?

Monday, August 4, 2008

एक कसक थी मन में...

आज सुबह विविध भारती पर बड़े गुलाम अली का एक भजन मन को बेहद सुकून दे गया। इस मायने में भी कि पिछले दिनों संसद में गुरु घंटालों की कारगुजारियों को देख मन व्यथित था। अभी ज्यादा व त नहीं हुआ हमारे सैनिक कारगिल की ऊंची पहाड़ियों पर चढ़ते हुए विपरीत स्थिति में आतंकवादियों से जूझ रहे थे। सैनिकों के शहीद होने की खबरें आती थी। पूरा देश गमगीन था और साथ ही अपने जवानों की शौर्य गाथा से अभिभूत भी। तब भी मन में यही कसक हुई थी। एक तरफ हमारे जवान सियाचीन करगिल जैसी ऊंची पहाड़ियों पर तैनात होकर देश की रक्षा के लिए अपनी जान की बाजी लगा देते हैं, दूसरी तरफ हमारे नेता किस तरह इस देश की अस्मिता पर प्रहार कर रहे हैं। बेशक उनकेपास टीवी के माइक पर बोलने के लिए ऊंची आवाज है, उनके पास चमकता कुर्ता है, विरोधियों को चित्त करने के लिए फुहड़ डिबेट है। लेकिन, अगर उन्हें कुछ याद नहीं रहता तो शायद यही कि हर बार सीमा से हमारे कुछ सैनिक अधिकारियों के शहीद हो जाने की खबर रह-रह कर आती है।
संसद में नोट उछालने का वह दृश्य दिखा तो बहुत याद करने पर भी याद नहीं आया कि किसी मारधाड़ या स्टंट फिल्म के किसी सीन में इतने रुपए एक साथ देखे होंगे। नहीं याद आया। भारतीय मध्यम वर्ग का आम आदमी इतने रुपए तो फिल्म के पर्दे पर ही देखता है। यहां के जासूसी उपन्यासों में भी पैसों की बात होती है तो लेखक दस पांच लाख रुपए तक ही बात सीमित रखते हैं। तब करोड़ रुपए संसद के पटल पर रखे जा रहे थे। इस बात की उत्सुकता नहीं कि रुपए कहां से आए और किसने दिए। राजनीति के पतन में अब सब कुछ किसी भी स्तर तक हो सकता है। एक करोड़ नहीं प्रत्येक दलबदलू को पचास करोड़ भी चाहिए तो कुछ नेता कहे जाने वाले बिचौलिए उसका भी इंतजाम कर लेंगे।
बात फिर एक क्षण की। विविध भारती सुनने के लिए रेडियो स्विच ऑन किया तो ठुमरी पर कार्यक्रम चल रहा था। ठुमरी और वह भी बड़े गुलाम अली की। शायद सावन के महीने में विविध भारती ने समझ कर बड़े गुलाम अली की ठुमरी हरी ओम तत्सत को सुनाया होगा। इस भजन से अपनी पुरानी स्मृति जु़डी है। बचपन की याद है पिताजी ने कभी कहा था हरि ओम तत्सत, महामंत्र है, ये जपा कर, जपा कर, बड़े गुलाम अली ने बहुत भावविभोर होकर गाया है, कभी जरूर सुनना। फिर बाद में कहीं और भी जिक्र हुआ था। पर इस भजन को कहीं सुन नहीं पाया था। इसकी चाह में जगह जगह घूमा। मुंबई के रिदम हाउस, दिल्ली के बाजारों, दून का पल्टन बाजार, और भी बहुत जगह। बड़े गुलाम अली की कई कैसेट सीडी देखीं पर यह भजन नहीं दिखा। फिर एकाएक रेडियो पर उद्घोषिका ने बड़े गुलाम अली की ठुमरी का जिक्र करते हुए इस भजन का जिक्र किया तो मन चहक उठा। बरसों मन की चाह पूरी हो रही है। कुछ ही पलों में बड़े गुलाम अली की सधी आवाज गूंज रही थी। मैं सुन रहा था,
...एक दिन पूछने लगी शिव से शैलजा कुमारी, प्रभु कहो कौन सा मंत्र है कल्याणकारी, कहा शिव ने यही मंत्र है तू जपा कर जपा कर हरी ओम तत्सत, हरी ओम तत्सत। लगी आग लंका में हलचल मची थी, तो यों कर विभिषण की कुटिया बची थी, यही मंत्र उसके मकां पर लिखा था हरी ओम तत्सत, हरी ओम तत्सत। उस साधक के स्वरों में मैं खो सा गया। जहां अमृत का रस बरसता हो वहां हमारी नई पीढ़ी इससे अनजान यों है। मुझे थोड़ा तंज भी हुआ कि मुंबई में रहते मैंने विविध भारती में कमल शर्मा और यूनुस खान से इस भजन की चर्चा यों नहीं की। और तमाम गीत संगीत पर तो साथियों से जब-तब बातें होती रहती थी। वह मुझे कुछ न कुछ बताते। लेकिन, अब ही सही, मुझे वह सुनने को मिला जिसे पाने के लिए मैंं बहुत घूमा फिरा। वह स्वर मेरे कानों मेंं अब भी गूंज रहे हैं। सच कितनी संपन्न विरासत है हमारी। आप को भी यह सुनने को मिले तो जरूर सुनिएगा।

Friday, August 1, 2008

ऑटो वाले को 'ताजमहल` बनाने की सलाह दे आया

जब आज किसी नए शहर में प्रवेश करते हैं तो आपका पहला परिचय उस शहर के ऑटो-टै सी और रि शा चालकों से होता है। मोल-भाव के बाद आप अपने यथा स्थान की ओर चले जाते हैं। लेकिन इससे पहले जब आप चालाकी दिखाते हुए चालक से कहते हैं 'अरे! इतने कैसे ले लोगे, रोज का आना जाना है हमारा`, 'लूट मचा रखी है या?` 'इतने में चलना है तो चलो वरना अपना रास्ता नापो`। यकीन मानिए आपकी इस चालाकी के बाद भी आमतौर पर आप लूट लिए जाते हैं। मतलब आपकी चालाकी के बाद भी आप वाजिफ दाम से ज्यादा देकर ही अपने गन्तव्य तक पहुंचते हैं। ये मेरे-आपके और हिंदुस्तान के हर शहर की कहानी है। एक अनपढ़ ऑटो रि शा चालक कुछ पलों में ही आपके पूरे व्यि तत्व का चित्र अपने दिमाग में खींच लेता है। वह आपके जूते, कपड़ों, कंधे पर टंगे बैग, हाथ में लिए सूटकेस और सिर पर सजी हैट से जान लेता है कि अमुक शख्स से कितना वसूला जा सकता है। बची-कुची कसर आपकी जुबान पूरी कर देती है। रि शे वाले को सुनाई देने वाला आपका पहला स्वर, 'ये रि शा...!`, 'वो भईया...!`, 'अरे सुन...!`, 'सुनो भाई`, 'चलना है या?`। हिंदुस्तान में रि शा-ऑटो वालों के लिए प्रचलित ये स्वर उसे आपका जैसे आई कार्ड हाथ में थमा देते हैं। इन्हीं स्वरों की व्यंजना से वह दाम तक कर लेता है। इसके बाद बात फिर इज्जत की हो तो भला वह भी पीछे यों हटे। थक-हार कर आदमी दो-चार रुपए इधर-उधर कर उसी के बताए दाम पर उसके साथ चलने को मजबूर हो जाता है। यहां पर मैं रि शा चालकों की पैरवी नहीं कर रहा हूं। न ही रि शे वालों से जाे़डकर हमारे-आपके व्यि तत्व की पहचान बता रहा हूं। मैं दिखना चाहता हूं, समाज का वह चेहरा जिससे हम अ सर दो-चार होते हैं। लूटते हैं, पिटते हैं, घिसीयाते हैं और फिर आगे बढ़ जाते हैं। ऐसा नहीं है कि यही हिंदुस्तान की तस्वीर है। यह पूरी तस्वीर नहीं है, लेकिन इसे इसका वृहद्ध रूप कहा जा सकता है। मैं देश में ज्यादा तो नहीं घूमा हूं, लेकिन कई शहर इन्हीं रि शा-ऑटो चालकों की ईमानदारी के लिए भी जाने जाते हैं। इनमें मुंबई को शीर्ष पर कहा जाता है। मुंबई में आप गाड़ी से उतरने के बाद किसी भी ऑटो-रि शा या टै सी वाले से दाम तय कर लीजिए, इसके बाद वहां रह रहे अपने रिश्तेदार को फोन पर पूछिए, ऑटो वाला इतने पैसे मांग रहा है। तो वह यही कहेगा बिल्कुल ठीक है, आप उसमें बैठकर आ जाइए। यह मेरा खुद का अनुभव भी है। लेकिन, भारत के अधिकतर शहरों में आपको इस मामले में कटु अनुभव को ही ग्रहण करना पड़ेगा।
जालंधर में रहते हुए अपने तीन अनुभव आपके साथ साझा करना चाहूंगा।
पहला-जब मैं पहली बार जालंधर आया। रि शे वाले ने उस व त रेलवे स्टेशन से घर तक आने के मुझसे उतने पैसे लिए, जितने में मैं अब रेलवे स्टेशन से घर तक दो बार आता हूं।
दूसरा-देहरादून में तीन दिन की छुट् टी काटकर जब मैं जालंधर बस स्टैंड पर पहुंचा तो जून की भरी दोपहरी में पसीने से बूरेहाल था। मेरे घर की तरफ जाने वाला एक ऑटो चालक जोर-जोर से आवाज दे रहा था। मैं जाकर ऑटो में बैठ गया। लेकिन, भाई ने आधा शहर घुमाने के बाद मुझसे किराया भी पहले ही ले लिया और आधे रास्ते में छाे़ड दिया। मैं उस व त उससे लड़ने या उलझने की स्थिति में भी नहीं था और न ही चाहता था।
तीसरा-मौसम खुशगवार देकर हम तीन मित्रों ने बाजार घूमने की योजना बनाई। हम लोग बाजार गए और जाते हुए वाजिफ पैसे देकर, बाजार में खरीददारी करने लगे। इसके बाद बीयर पी, बारिश में भीगे और खूब मस्ती की। आते हुए उसी रूट पर जब मैने उसे बनते पैसे दिए, तो ऑटो वाला उसके डबल पैसे मांगने लगा। बहुत गुस्सा आया। उसे उसी के मुताबिक पैसे भी दिए, लेकिन इससे पहले उससे थाे़डी बहुत तकरार भी कर ली। ...और आते-आते उसे 'ज्यादा दिए` पैसों से 'ताजमहल` बनाने की सलाह भी दे डाली।