Tuesday, September 28, 2010

जो अतिथि दे वो भला

बालम सिंह गुसाईं
अतिथि देवो॒भवः की परंपरा का निर्वहन करते करते भारतीय अब थक चुके प्रतीत होते हैं। अतिथि को देवता समान मान उनकी सेवा करना तो अब किताबों कहानियाें में ही पढ़ने या सुनने को मिल जाए तो गनीमत समझिए। कुल मिलाकर आधुनिक इंडिया में नई परंपरा जन्म ले रही है वो है ‘अतिथि दे वो भला’। और जो न दे वो भूला ही सही।
कुछ विद्वान लोग इस परंपरा से खासे नाराज हैं, उनका मत है कि देश की संस्कृति, संस्कारों, परंपराओं को भूलना या उनसे छेड़छाड़ करना दंडनीय अपराध है। भला अब इन्हें कौन समझाए, पहले देश सोने की चिड़िया था, जिसे जरूरत महसूस होती उसे तब सोने के अंडे मुफ्त बांट दिए॒जाते, पर अब हालात बिलकुल बदले हुए॒हैं। यहां तो खुद भूखों मरने की नौबत आन पड़ी है, महंगाई के मारे सांसत में जान पड़ी है। ऐसे में भला हम किसी को क्या दें, जब खुद मांगने की नौबत आई हुई है। हालात यह हैं कि महीने में कई दिन तो पड़ोसियाें की चीनी, नमक से ही काम चलाना पड़ता है। ले देकर जो दिन कट जाए वो अच्छा, पर वापस देना भी तो पड़ता है। चालीस की चीनी लौटाना तो ठीक, अब तो नमक का भी हिसाब देना पड़ता है। जब नमक तक का हिसाब मांगा जाए, तो भला अतिथि की सेवा करने का जोखिम कौन उठाए।
आइये, अतिथि दे वो भला की नई परंपरा पर गौर फरमाइये.. क्या नेता, क्या अभिनेता, ये अतिथि ही हैं हर किसी के चहेता। एक जन बोला, भला इनमें ऐसा क्या है, जो चाचा-ताऊ अन्य संबंधियों में भी ना है। मैंने कहा, भैय्या यही तो आधुनिक परंपरा है, जिसका पलड़ा भरा है, वो अतिथि ही सेवा करवाने के पैमाने पर खरा है। नेता,अभिनेता भूले से भी किसी के यहां आते हैं तो उसकी बंद किस्मत का ताला खोल जाते हैं। कुछ और हो न हो कम से कम ऐसे अतिथियों के आने मात्र से चंद दिन तो फिर ही जाते हैं। पड़ोसी तो पड़ोसी, हर गली मुहल्ले और मीडिया तक में आप सम्मान पाते हैं। जिनके सगे-संबंधियों की जेबें खाली हैं तो उनके सत्कार के लिए हर घर में कंगाली है।
तसवीर का एक पहलू और है। जिसमें कहीं देश में विदेशियों के साथ अभद्रता, तो कहीं उन्हें पर्याप्त सम्मान नहीं दिए जाने का शोर है। कोई बार-बार पूछ रहा है, ये कैसा दौर है? वजह क्या है ये कौन समझाए! बेहतर होगा किताबी बातें छोड़ हकीकत पर गौर फरमाएं! कोई पूछे तो बताएंगे, बशर्ते घर आएंगे तो क्या लाएंगे... और जाएंगे तो क्या देकर जाएंगे

Monday, September 13, 2010

क्या देख रहे हैं देश के हुक्मरान यह पाक नहीं हमारी जमीं है हिंदुस्तान



विनोद के मुसान
ईद उल फितर के दिन श्रीनगर के लाल चौक पर जो कुछ घटा, उसे देखकर किसी भी सच्चे हिंदुस्तानी का खून खौल सकता है। लाल चौक पर खड़े एतिहासिक घंटाघर पर एक बारफिर पाकिस्तान का झंडा फहराया गया। कई सरकारी बिल्डिंगों को आग के हवाले कर दिया गया। वाहन फूंके गए और तोड़फोड़ की गई। मुबारक पर्व पर जितना हो सकता था सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाया गया। इससे ठीक पहले दहशतदर्गी फैलाने वाले यह सभी लोग ईद की नमाज अदा कर लौटे थे।
इस देश में रहकर दूसरे देश का झंडा फहराना, जिस थाली में खाना उसी में छेद करने जैसा है। अलगाववादी कुछ लोग कश्मीर की जनता को बरगला कर अपने नाकाम मनसूबों को अंजाम देने में लगे हैं। जिन नौजवानों के हाथों में किताबें होनी चाहिए थीं, उनके हाथों में सैन्य बलों को मारने के लिए ईंट और पत्थर दिए जा रहे हैं। मजहब के नाम पर उनकी जवानी को ऐसे अंधकार में धकेलने का काम किया जा रहा है, जहां से शायद ही वह कभी लौटकर वापस आ सकें।
देश का कोई नेता इन हालात को सुलझाने का प्रयास तक करता दिखाई नहीं दे रहा है। धर्मनिरपेक्षता की बात करने वाले और छोटी-छोटी बातों पर धरना प्रदर्शन करने वाले नेताओं की जुबान पर भी ऐसे मौके पर ताला लग जाता है। मीडिया की अपनी सीमाएं हैं। देश में अमन और शांति कायम रखने के लिए लाल चौक के उन दृश्यों को न दिखाने और मामूली कवरेज उस अघोषित रणनीति का हिस्सा होता है, जो लोकतांत्रिक देश की अखंडता के लिए जरूरी भी है।
कश्मीर में रोज खून की होली खेली जा रही है, सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाया जा रहा है। आम जनता के खून पसीने की गाढ़ी कमाई इस तंत्र को यथावत रखने में लुटाई जा रही है, लेकिन हश्र सबके सामने है। विकास की बात तो दूर, सर्वविनाश करने वाले लोगों को रोका तक नहीं जा रहा है। सब जानते हैं मुठ्ठीभर दहशतगर्द नेता इस माहौल के लिए जिम्मेदार हैं।
उन पर लगाम लगाई जानी चाहिए। साफ होना चाहिए, वे जिस थाली में रोटी खा रहे हैं, उसमें छेद करने की जुर्रत न करें। नहीं तो अपना काला मुंह वहीं जाकर करें, जिसका गुणगान यहां रहकर कर रहे हैं।


Tuesday, August 10, 2010

गरम दूध है, उगला भी नहीं जाता, निगला भी नहीं जाता


विनोद के मुसान
राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन के संबंध में मीडिया में आ रही नकारात्मक खबरों के बाद शायद मेरी तरह प्रत्येक भारतीय दुविधा में होगा। गरम दूध है, उगले या निकले। बात सिर्फ एक आयोजन भर की नहीं है। देश के सम्मान की है। देश की भ्रष्ट राजनीति और अफसरशाही ने एक महा आयोजन से पूर्व देश के सम्मान को चौराहे पर ला खड़ा किया है।
कुछ दिन पूर्व तक प्रत्येक भारतीय का सीना इस आयोजन पर गर्व से फूला जा रहा था, वहीं पूरा विश्व हमारी ओर सम्मान से देख रहा था। लेकिन जैसे-जैसे इस महा आयोजन से जुड़ी भ्रष्टाचार की खबरें छनकर बाहर आ रही हैं, मन में कोफ्त हो रही है। अफसोस हो रहा है इस बात का कि पूरी दुनिया हमारे देश के बारे में क्या सोचेगी। घर की बात होती तो घर में दबा दी जाती। जैसा कि अक्सर होता आया है देश में तमाम घोटाले हुए, कई विवादों ने जन्म लिया और यहीं दफन हो गए। खेलों से पहले जो ‘खेल’ खुलकर सामने आ गए हैं, उसके बाद किसी भी भारतीय का उत्तेजित होना लाजमी है, लेकिन खेल का दूसरा पहलू यह भी यह ये खेल हमारे आंगन में हो रहे हैं। इनके सफल आयोजन की जिम्मेदारी भी हमारी है। नहीं तो देश-दुनिया में जिस शर्मिंदगी को झेलना होगा, वह इससे कहीं बड़ी होगी। मेरा मानना है मीडिया को भी इस मामले में थोड़ा संयम बरतना होगा। आखिर बात अपने घर में आई बारात की है। खेल सकुशल निपट जाएं, उसके बाद चुन-चुनकर इस भ्रष्टाचारियों को चौराहे पर जूते मारेंगे, जिन्होंने देश केसम्मान तक को दाव पर लगा दिया।

Sunday, June 20, 2010

मर्यादा में रहें, आपका स्वागत है


विनोद के मुसान
ऋषिकेश की हृदयस्थली और प्रमुख आस्था केंद्र त्रिवेणी गंगा घाट पर 13 जून की सुबह श्रद्धालुओं और गंगा सेवा समिति से जुड़े कार्यकर्ताओं ने जापानी पर्यटकों के दल के एक गाइड की जमकर धुनाई कर डाली।
आरोप था कि सप्ताह भर से त्रिवेणी घाट पर सुबह सवेरे जापानियों का यह दल पश्चिमी सभ्यता की तर्ज पर नंगधडग़ होकर गंगा की लहरों में मौज-मस्ती करने आ रहा था। जिससे आस्था के इस केंद्र में श्रद्धालु खुद ही शर्मिंदा हो रहे थे। उन्हें देखने के लिए यहां मनचलों की भीड़ भी लग जाती थी। पुलिस प्रशासन का तो इस ओर ध्यान नहीं गया, लेकिन स्थानीय लोगों ने विदेशियों के स्वदेशी गाइड को इस तरह की हरकतों से बाज आने को कहा। लेकिन वह नहीं माना। रविवार को सुबह जैसे ही गाइड विदेशी पर्यटकों को लेकर त्रिवेणी पहुंचा। गंगा सेवा समिति से जुड़े कार्यकर्ताओं ने गाइड की जमकर धुनाई कर दी।
घटना के बाद सवाल उठना लाजमी है कि यह कितना सही है और कितना गलत? एक ओर जहां हम पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए तमाम योजनाएं चलाते हैं, वहीं दूसरी ओर उनके साथ इस तरह का व्यवहार कहां तक सही है?
ऋषिकेश शुरू से ही विदेशी पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र रहा है। विदेशी सैलानी यहां आकर गंगा तट पर अपार शांति प्राप्त करते हैं। टू-पीस बिकनी में गंगा तटों पर लेटे सन-बाथ लेना और अठकेलियां करना उनके लिए आम बात है। स्थानीय लोग भी पश्चिमी सभ्यता के इस रूप से भली-भांति परिचित हैं। इसलिए उन्हें कोई परेशान भी नहीं करता। वे स्वच्छंद रूप से गंगा तटों पर इसी तरह विचरण करते हैं। लेकिन दिक्कत तब होती है, जब ये सैलानी आस्था के उन घाटों पर इस तरह का व्यवहार करते हैं, जहां हिंदू संस्कृति इस बात की इजाजत नहीं देती।
हिंदुओं के लिए गंगा जल में स्नान करना आज भी कई जनमों में कमाए गए पूण्य के समान है। जबकि कुछ सैलानी इन घाटों पर ठीक उसी तर्ज पर स्नान करने उतरते हैं, जैसे फाइवस्टार होटल के किसी स्विमिंग पूल में।
मतलब साफ है, आप हमारे देश में आइए, आपका स्वागत है। घूमिए-फिरिए, खूब मौज-मस्ती किजिए, लेकिन ध्यान रखिए किसी की धार्मिक भावनाएं आहत न हों।
हम आज भी अतिथि देवो भव: में ही विश्वास करते हैं। लेकिन, इसकी पहली शर्त ही मर्यादा है, जिसमें रहते हुए विदेशियों को ही नहीं, हर उस व्यक्ति को सम्मान मिलेगा, जो हमारे प्रदेश में आया है।

Saturday, June 12, 2010

Monday, May 10, 2010

9 हेक्टेअर भूमि में आकार ले रहा 'लघु भारत ’

देहरादून से योगेश भट्ïट
सात साल पहले शुरू की गई एक पहल आज पूरे विश्व पर्यावरण के लिए नजीर बन गई है। पर्यावरण को बचाने की इस मुहिम को सलाम।
इस बार अगर आप बदरीनाथ धाम आएं, तो यहां बद्रीश एकता वन जरूर जाएं। यह वन देश ही नहीं विश्व भर के लिए पर्यावरण संरक्षण की मिसाल है। आप एक पौधा लगाकर आस्था और पर्यावरण के समागम में भागीदारी कर सकेंगे। चाहे आप देश के किसी भी कोने से आए हों, इस वन में अपने प्रदेश के लिए स्थान पहले से तय मिलेगा। इसी आरक्षित स्थान पर आप अपने पूर्वजों, प्रियजनों या फिर यात्रा स्मृति में पौधा रोपकर बदरीधाम से रिश्तों की डोर जोड़ सकेंगे। आपके 'पौधे ’ की देखरेख का जिम्मा प्रदेश का वन विभाग उठाएगा।
सात साल पहले 2002 में की गई यह पहल अब अपने यौवन रूप में नजर आने लगी है। बदरीनाथ में माणा और बामणी गांव के सहयोग से देवदर्शनी के पास 9 हेक्टेअर भूमि पर इस योजना को आकार दिया गया है। यहां 28 राज्यों और 7 केंद्र शासित प्रदेशों के लिए भूमि आरक्षित कर 'लघु भारत ’ का स्वरूप दिया गया है। फिलहाल इस वन में चार प्रजातियों की वंश वृद्धि हो रही हैं। इसमेें भोजपत्र, कैल, देवदार और जमनोई शामिल हैं। अभी तक 700 से अधिक वृक्ष तैयार हो चुके हैं।
अब तक योजना का प्रचार-प्रसार नहीं था, लेकिन आम लोगों के रुझान को देखते हुए इसे गंभीरता से लिया जा रहा है। इसी माह शुरू होने वाली चारधाम यात्रा के दौरान इस बद्रीश एकता वन का प्रचार करनेे की तैयारी है। प्रदेश सरकार भी विभिन्न मौकों पर इसका खास प्रचार कर रही है। प्रमुख वन संरक्षक डा. आरबीएस रावत इस योजना को लेकर खासे उत्साहित हैं। उनके अनुसार वन विभाग पर्यावरण संरक्षण की इस योजना पर पूरा फोकस है। योजना का मुख्य उद्देश्य पर्यावरण संरक्षण का संदेश देना है।
साभार-अमर उजाला

Friday, May 7, 2010

आरती और सिमरन को न्याय चाहिए

आरती और सिमरन को न्याय चाहिए
आरती का दोषी सुरेंद्र कोली सिमरन का जन्मदाता

राजीव पांडेय
निठारी में नरपिशाचों का शिकार होकर छोटी सी उमर में जान गंवाने वाली आरती के साथ ही सिमरन को भी न्याय चाहिए। इन दोनों के एक ही कड़ी से जुड़े होने के बावजूद इनमें फर्क बस इतना है की निठारी का नरपिशाच सुरेंद्र कोली आरती का गुनहगार है तो सिमरन का जन्मदाता भी। सात साल में ही दुनिया से रुखसत हो चुकी मासूम आरती का मामला न्यायालय में विचाराधीन है तो करीब इतने ही बरस की सिमरन का फैसला जनता की आदलत में। कोली को १२ मई को सजा सुनाई जानी है। यह तय है कि कोली के अमानवीय कृत्य के लिए न्यायालय उसे जो भी सजा देगा वह कम ही होगी। इसी पटाक्षेप के बाद सिमरन का सवाल उठेगा और तब समाज को यह ध्यान रखना होगा की सिमरन केसाथ कोई अन्याय न हो क्योंकि वह अपने पिता के गुनाह से अंजान है।
अल्मोड़ा के मंगरूखाल गांव में अपने घर के आंगन में आज भी मासूम सिमरन निश्छल और तनावमुक्त होकर घूमती है। उसको आज भी पता नहीं कि जिन हाथों को पकड़कर उसने पहली डग भरी थी वह हाथ उसी की तरह न जाने कितने मासूमों के खून से रंगे थे। वह इससे भी अंजान है कि यदि आपने और हमने उसका साथ नहीं दिया तो आगे की डगर कितनी भयावह हो सकती है। वह तो आज भी अपने पिता के इंतजार में है। सिमरन केअपने व्यक्तिगत जीवन में इन वर्षों में कोई बदलाव नहीं आया। उसकी दिनचर्या आज भी उसी तरह है जैसी निठारी कांड से पहले हुआ करती थी। इस कांड के बाद शुरुआती झंझावतों के बीच कुछ दिन स्कूल छूटा जरूर लेकिन अब वह फिर स्कूल जाने लगी है। इस बीच उसका परिवार पूरी तरह दरक चुका है। उसकी मां शांति केजीवन में आज अपने नाम से मेल खाती कोई चीज नहीं है। चार साल का छोटा भाई अभावों के कारण आए दिन बीमार रहता है। इन दिनों टाइफाइड से ग्रसित है। दादी कुंती को आज भी अपनी कोख पर विश्वास नहीं होता। सुरेंद्र के कृत्य की सजा उसका परिवार भुगत रहा है। करीब १९ मामलों में हत्या और बलात्कार केआरोपी कोली को सजा देना कानून की जिम्मेदारी है। दो मामलों में वह दोषी ठहराया जा चुका है। कई फैसले आने अभी बाकी हैं। अब बात आती है कोली के परिवार जैसे उन सभी परिवारों की जो नाहक सजा काट रहे हैं। जो समाज में केवल इसलिए बहिष्कृत कर दिए गए हैं कि उनके अपनों ने कोई गुनाह किया है। तय किया जाना चाहिए कि कोली और उसके परिवार की ही तरह अपनों के कृत्य का दंश झेल रहे लोगों की जिम्मेदारी कौन लेगा। निर्णय होना चाहिए कि सिमरन और उसकी ही तरह अन्य मासूमों पर उनके बाप की काली छाया कभी नहीं पड़ेगी। ऐसे परिवारों से आने वाले बच्चों को भी बेहतर जिंदगी मिले। यदि ऐसा नहीं हुआ तो आरती और सिमरन दोनों ही न्याय से वंचित रह जाएंगे। क्योंकि आरती भी सिमरन की ही तरह मासूम थी। इसलिए एक मासूम केसाथ हुए गुनाह कि सजा दूसरे मासूमों को नहीं मिलनी चाहिए। सिमरन को वह सब चीज मिलना चाहिए आरती को जो उसकेमाता-पिता देना चाहते थे बेहतर शिक्षा, बेहतर वातावरण और बेहतर भविष्य। इनपर सिमरन का आज भी उतना ही अधिकार है जितना सुरेंद्र केदोषी होने से पहले था। आरती का फैसला तो अदालत कर चुकी है। उसका गुनहागार दोषी ठहराया जा चुका है। १२ मई को उस नरभक्षी की सजा भी निर्धारित कर दी जाएगी। लेकिन सिमरन का मामला ताउम्र अब आपकी आदलत मेंं चलेगा बस ध्यान रहे कि कोई भी दलील नरपिशाच सुरेंद्र की वजह से इस मासूम के खिलाफ न जाए। यदि ऐसा हुआ तो यह समाज के न्याय पर एक धब्बा होगा।

Tuesday, April 27, 2010

व्यक्तित्व के धनी बहुगुणा

सूर्यकांत धस्माना
भारतीय राजनीति के क्षितिज पर पांच दशकों तक एक नक्षत्र की तरह चमकने वाले हेमवतीनंदन बहुगुणा का व्यक्तित्व चमत्कारी था। आत्मविश्वास उनकी सबसे बड़ी पूंजी थी। 25 अप्रैल, 1919 को गढ़वाल जिले के बुघाणी गांव में पैदा हुए बहुगुणा ने वर्ष 1938 में उच्च शिक्षा के लिए इलाहाबाद के राजकीय इंटर कॉलेज में दाखिला लिया। तब इलाहाबाद राष्ट्रीय आंदोलन का बड़ा केंद्र था। हेमवतीनंदन बहुगुणा पर भी आजादी के आंदोलन का ज्वार चढ़ा। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में तो उन्होंने सक्रिय भूमिका निभाई। उसी आंदोलन के दौरान उनकी मुलाकात युवा आंदोलनकारी कमला त्रिपाठी से हुई, जिनसे बाद में उनका विवाह भी हुआ।
ब्रिटिश हुकूमत ने बहुगुणा को जिंदा या मुर्दा पकडऩे वाले को 2,000 रुपये पुरस्कार देने की घोषणा की थी। तब यह रकम छोटी नहीं थी। आखिरकार फरवरी, 1943 में वह दिल्ली में जॉर्ज पंचम की मूर्ति तोडऩे के प्रयास में बीजू पटनायक व मन्नू भाई शाह के साथ पकड़े गए। दिल्ली से वह नैनी सेंट्रल जेल लाए गए, पर 1945 में गंभीर बीमारी के कारण उनको रिहा कर दिया गया।
देश की आजादी के बाद बहुगुणा कांग्रेस की राजनीति मे सक्रिय हो गए। वर्ष 1952 में प्रथम आम चुनाव में वह इलाहबाद संसदीय क्षेत्र के करछना विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़े और जीते। वर्ष 1971 के आम चुनाव में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में बनी सरकार में बहुगुणा जी को पहली बार संचार राज्यमंत्री का दायित्व मिला। लेकिन 1973 में उत्तर प्रदेश में पीएसी ने जब विद्रोह कर दिया, तो जलते हुए प्रदेश को शांत करने के लिए बहुगुणा जी को प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में भेजा गया था।
आपातकाल के दौरान बहुगुणा व इंदिरा गांधी के बीच सैद्धांतिक मतभेद हुए और 28 अक्तूबर, 1975 को उन्होंने त्यागपत्र दे दिया। वह विपक्षी राजनीति में शामिल हुए और जनता पार्टी सरकार में मंत्री भी बने। लेकिन वर्ष 1980 में देश में मध्यावधि चुनाव हुए। इन चुनावों से पूर्व श्रीमती गांधी ने बहुगुणा के घर जाकर उनको कांगे्रस में लौटने का निमंत्रण दिया, तो बहुगुणा जी ने यह निमंत्रण स्वीकार कर लिया। 1980 के मध्यावधि चुनाव में पूरी शक्ति के साथ चुनाव अभियान संचालित किया। बहुगुणा पहली बार अपनी मातृभूमि गढ़वाल से चुनाव लड़े व जीते। लेकिन जब केंद्र में श्रीमती गांधी के नेतृत्व में कांगे्रस की सरकार गठित हुई, तो उसमें बहुगुणा को स्थान नहीं मिला। इसी दौरान फिर उनके मतभेद श्रीमती गांधी से इतने बढ़े कि मई 1980 को उन्होंने न केवल कांगे्रस से, बल्कि लोकसभा की सदस्यता से भी त्यागपत्र दे दिया।
कांगे्रस छोडऩे के बाद बहुगुणा ने लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी का गठन किया। वर्ष 1987 में चौधरी चरण सिंह की मृत्यु के बाद बहुगुणा लोकदल के अध्यक्ष बन गए। लोकदल के विभाजन के समय उसके ज्यादातर बड़े नेता, जिनमें बीजू पटनायक, लालू प्रसाद, मुलायम सिंह यादव, शरद यादव आदि बहुगुणा के साथ लामबंद थे। इसी दौरान देश में बोफोर्स का जिन्न बोतल से बाहर आया और विश्वनाथ प्रताप सिंह बिना किसी संघर्ष के विपक्षी राजनीति के हीरो बन गए। बहुगुणा ने उस वक्त स्पष्ट कर दिया कि सांप्रदायिक पार्टियों के साथ वह कभी खड़े नहीं होंगे। लेकिन तब तक बहुगुणा मन व मस्तिष्क से तो नहीं, पर शरीर से थक गए थे। उनको बाईपास सर्जरी के लिए क्वींसलैंड जाना पड़ा, जहां 17 मई, 1989 को उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया।
(लेखक उत्तराखंड के वरिष्ठ कांग्रेसी नेता हैं)
साभार : धस्माना जी का यह लेख 24 अप्रैल को 'अमर उजाला ’ के संपादकीय पृष्ठï से लिया गया है।

Monday, April 19, 2010

कुंभ से साक्षात्कार

इन दृश्यों की शब्दों में अभिव्यक्ति नहीं की जा सकती है। यह अद्ïभुत हैं, अलौकिक हैं। आंखों को तृप्त कर देने वाले। संसार में ऐसा समागम शायद ही कहीं और देखने को मिले। इसके बाद आप नास्तिक होते हुए भी अपने को उस भीड़ से जुड़ा पाते हैं, जो आस्था के भवसागर में तरने आई है।
बहुत लोगों को इस बात पर बहस करते सुना है, यह कुंभ नहीं महाकुंभ है। जो बारह साल बाद आया है और बारह साल बाद फिर आएगा। लेकिन कुछ भी हो, यह बे-मिशाल है। तमाम संस्कृतियों को ऐसा भवसागर, जिसमें हर कोई तरने आया है। होश संभालने के बाद यह दूसरा मौका है, जब कुंभ से मेरा साक्षात्कार हुआ।

विनोद के मुसान
पहला साक्षात्कार
1998 में जब मैं बी.एससी द्वितीय वर्ष का छात्र था। उस वक्त मेरी उम्र महज 17-18 साल थी। शौक के लिए फोटाग्राफी सीख रहा था। मेरे जीजा जी के एक मित्र हैं, रविंद्र पाल ग्रोवर, जिन्हें लोग बंटी भईया के नाम से जानते हैं। उन्हीं दिनों कुंभ मेला प्रशासन की ओर से उन्हें पूरे कुंभ की फोटोग्राफी और विडियो कवरेज का काम मिला था। जिसमें करीब 15 लोगों की टीम बनी। 'त्रिवेणी कंप्यूनिकेशन ’ की इस कंपनी में कई जाने-माने फोटोग्राफरों को शामिल किया गया। सभी लोग पेशेवर और मझे हुए थे, जबकि मेरी सिर्फ शुरुआत थी। हरिद्वार में शिव चौक स्थित मोती महल धर्मशाला में हम लोगों के ठहरने की व्यवस्था की गई थी।
इधर, कुंभ में पहले ही दिन मेरी ड्ïयूटी तात्कालिक मेला अधिकारी जेपी शर्मा के साथ लग गई। 'जैनित ’ का पुरना स्टील कैमरा मेरे पास था, जो मेरा खुद का नहीं था। कुंभ के विकास कार्यों को देखने निकला मेलाधिकारी का काफिला आधे दिन तक भ्रमण पर रहा। इसके बाद डाम कोठी में मीटिंग थी, (तब मेला नियंत्रण भवन नहीं बना था।) जो देर शाम तक चली।
सुबह से लेकर शाम तक मैंने पूरे दिन में रिकार्ड 450 फोटो खींचे थे। इसकी एवज में प्रति प्रिंट हमें 3 रुपए मिलते थे। यानी कुंभ में मैंने पहले ही दिन 1350 रुपए की कमाई की थी। इसके बाद तो जैसे मेरी निकल पड़ी। तय कार्यक्रम के मुताबित हमें एक दिन पहले बता दिया जाता कि फलां व्यक्ति की ड्ïयूटी कहां और किस अधिकारी के साथ रहेगी।
कब कितनी फोटो खींची जाएं, इसकी कोई बाध्यता नहीं थी। विकास कार्यों के भ्रमण के दौरान किसी निर्माण कार्य की तरफ अधिकारी का हाथ उठा और नीचे आते-आते मैंने पांच क्लिक कर दिए। कुल जमा 15 दिन के भीतर मैंने इतने पैसे जमा कर लिए कि अब मैं अपनी कामचलाऊ किट (कैमरा, फ्लैश, लांग जूम, वाइड लैंस, कुछ विल्टर, बैटरी, चार्जर और एक बैग) खरीदने के बारे में सोच सकता था।
तब शायद पूरे भारत में ही व्यवसायिक डिजिटल कैमरों का चलन नहीं था। फोटाग्राफी मैनवल कैमरों और विडियोग्राफी साधारण या बीटाकैन से होती थी। इसके बाद मैंने अपनी मां से कुछ पैसे उधार लिए और दिल्ली के चांदनी चौक स्थित फोटो मार्केट से एक खुद कीकिट खरीद लाया। जो उस वक्त मुझे कुल 25 हजार रुपए में पड़ी थी।
दिन भर फोटो खिंचना और शाम को धर्मशाला में निढाल होकर सो जाना। यह क्रम करीब दो महीने चला। इस बीच मुझे अपनी पढ़ाई के मद्ïदेनजर वापस लौटना पड़ा। जो मेरा पहला उद्ïदेश्य था। प्रोफेशनल फोटाग्राफरों के साथ रहते हुए इस बीच में फोटाग्राफी की कई बारीकियां सीख चुका था।
इस पूरे दौरान न तो मुझे कुंभ की महत्ता की जानकारी थी न ही में कभी इतनी धार्मिक प्रवृत्ति का रहा हूं। एक मात्र उद्ïदेश्य था फोटाग्राफी सीखना और कुछ पैसे कमाना। जो मैंने पूरा किया।
दुनिया के कोने-कोने से आकार लोग मोक्ष प्राप्ति को गंगा स्नान कर गए। लेकिन मैं पूरे दो माह हरिद्वार में रहते हुए भी ऐसा नहीं कर पाया। न ही हमारे फोटोग्राफर साथियों के बीच कभी इस बात को लेकर चर्चा हुई। गंगा के प्रति हमेशा से मेरी अपार आस्था रही है, लेकिन यह प्रश्न आज भी जब मैं अपने-आप से पूछता हूं कि क्यों मैं ऐसा नहींं कर पाया तो उसका जवाब नहीं मिलता।
रात को जब तमाम घाट सुनसान हो जाते। दूसरे साथी इन घाटों पर बैठकर ही गंगाजी में आधे पांव डुबोकर मदिरापान करते और अपनी थकान उतारते। कई बार बियर का दौर चलता तो फ्रिज का काम भी गंगा के निर्मल जल से ही लिया जाता। इस पूरे आयोजन में मैं भी मदिरा पीने के अलावा बराबर का भागीदार बनता और माहौल का लुत्फ उठाता।
आज भी सोचता हूं तो बस सोचता ही रह जाता हूं-क्यों नहीं मैं भी उस भवसागर का तिल बन पाया, जिसमें सब तरने आए थे।

दूसरा साक्षात्कार
12 जनवरी 2010, दिन मंगलवार। मैं सीट पर बैठा खबरों का संपादन (अमर उजाला, देहरादून) कर रहा था। उसी वक्त संपादक आदरणीय निशीथ जोशी जी ने मुझे अगले दिन कवरेज के लिए हरिद्वार जाने का आदेश दिया। हालांकि अगले दिन मेरी छुट्ïटी थी और पहले से कुछ कार्यक्रम तय थे, लेकिन यह मेरे लिए शुअवसर था।
चूंकि अगले दिन 14 फरवरी यानी मकर संक्रांति को सदी के पहले कुंभ का पहला स्नान होने जा रहा था। मैं फोटोग्राफर नवीन कुमार सहित भारी बारिश के बीच 13 फरवरी की सुबह नौ बजे हरकी पैडी पर था। बारिश के बावजूद लोगों की भीड़ भोर से स्नान के लिए ब्रह्मïकुंड की ओर टूट रही थी। मैंने नवीन ने कहा काम शुरू करने से पहले गंगा जी को प्रणाम कर लिया जाए। इसके बाद हमने श्रद्धा केसाथ आचमन किया और दो मिनट गंगा के शीतल जल में खड़े होकर उसके स्पर्श का आनंद लिया।
पूरा दिन काम करने के बाद हमने हरिद्वार कार्यालय से स्टोरी फाइल की और फिर हम वापस आ गए। इस आपाधापी के बीच उस दिन हमें खाने का भी समय नहीं मिला। गंगा में स्नान करने की बात उस दिन भी दिमाग में नहीं आई। सुखद था तो इतना दिन भर की मेहनत अगले दिन पहले पन्ने पर बॉटम के रूप में नजर आई।

Saturday, April 17, 2010