Friday, October 31, 2008

ये कैसी संस्कृति, ये कैसा विस्तार

विनोद के मुसान
भारतीय संस्कृति में धर्म का बड़ा स्थान है। संविधान ने प्रत्येक नागरिक को अपने धर्म के अनुसार जीवनव्यापन करने, उसकी रक्षा करने और उसके विस्तार का अधिकार प्रदत्त किया है। यहां तक तो ठीक है, लेकिन दि कत तब आती है, जब संविधान में दिए गए इस अधिकार का लोग दुरुपयोग करने लगते हैं, जिससे दूसरे कई लोगों को दि कत होती है बात 'धर्म` से जु़डी होती है, इसलिए कोई खुलकर विरोध भी नहीं कर पाता है। लेकिन बापू के इस देश में ऐसा नहीं होना चाहिए, जैसा कि वर्तमान में हो रहा है।

मैली होती गंगा :
गोमुख से निकलने वाली निर्मल और स्वच्छ गंगा हरिद्वार के बाद अपना रंग बदल देती है। या आपने कभी सोचा है, ऐसा यों होता है। यकीनन उसमें जगह-जगह सीवरेज और फैि ट्रयों से निकलने वाला गंदा पानी मिल रहा है। लेकिन, गंगा में आस्था रखने वाले उसके भ त या कर रहे हैं। उसे साफ रखने के बजाय उसे और गंदा कर रहे हैं। पूजा-अर्चना के बाद प्रसाद की पॉलीथीन, बच्चे के मुंडन के बाद उसके बाल, साथ में लाई गई अन्य गंदगी गंगा में बहा दी जाती है। नहाने के बाद मैले कपड़े उसमें निचाे़ड दिए जाते हैं।
एक कुप्रथा देखिए-पता नहीं किस मूर्ख ने इसकी शुरूआत की-ऋषिकेश में राम झूला के पास एक घाट है, जहां लोग नहाने के बाद अपने अंडरवियर छाे़ड जाते हैं। पूछने पर आस-पास बैठे पंडे बताते हैं, ऐसा करने से आदमी पूरी तरह शुद्ध हो जाता है। लेकिन, वहां घाट पर बिखरे सैकड़ों अंडरवियर को देखकर मन खिन्न हो जाता है। गंगा हमारी मां के समान है, लेकिन उसके बेटों को कौन समझाए कि बेटा अब तुम जवान हो गए है। कम से कम नहाने के बाद अपना अंडरवियर तो संभाल लो। या अब भी इसे मुझे ही धोना पड़ेगा।
नगर कीर्तन :
आप घर से किसी जरूरी काम के लिए निकले और रास्ते में आपको मिल गया नगर कीर्तन। सड़कें जाम। ट्रैफिक का बुरा हाल। पुलिस वालों द्वारा अमुक चौराहे पर आपको तब तक रोके रखा जाता है, जब तक की पूरा नगर कीर्तन न गुजर जाए। इस दौरान ट्रैफिक में कोई मरीज भी फंसा होता है तो किसी की बस या ट्रेन छूटने वाली होती है। इतना ही नहीं इस दौरान नगर कीर्तन के साथ गुजरने वाला जत्था अपने पीछे सड़कों पर छाे़ड जाता है तमाम गंदगी। जिससे साफ करने वाला कोई नहीं। नगर कीर्तन का स्वागत करने वाले अपने श्रद्धा जताने को जगह-जगह लंगर तो लगा देते हैं, लेकिन इस ओर ध्यान नहीं देते की पीछे छूटने वाली गंदगी को कौन साफ करेगा। खासकर के पंजाब में यह दृश्य आम है।
जगराते : भगवान ने रात बनाई है सुकून से सोने के लिए। लेकिन आए दिन गली-मोहल्लों में होने वाले जगराते इसमें खलल डालते हैं। मुझे नहीं लगता दुनिया के किसी भी धार्मिक ग्रंथ में यह बात लिखी हो कि ऊंची आवाज में की गई भ तों की प्रार्थना भगवान जल्दी सुनते हैं। फिर यह शोर यों? आजकल हर गली मोहल्ले में कुछ लोगों ने अलानां-कमेटी, फलानां-कमेटी बनाकर हर साल निश्चित दिन पर जगराता कराने का ठेका ले रखा है, जिसके खर्चे वे आम जन से चंदे के रूप में वसूलते हैं। जगराता कमेटी को कोई फर्क नहीं पड़ता कि किसी के बच्चों की परीक्षा हो रही है, या आस-पास के घरों में कोई बीमार है। आधुनिक युग में भि त की यह परंपरा कम से कम मुझे तो रास नहीं आती, आपका या कहना है।
'भजनों` का शोर :
सुबह तड़के चार बजे मुर्गे की बाक, घर के पास स्थित मंदिर से आती शंक की ध्वनि, मस्जिद से आजान और गुरुद्वारे के लाडस्पीकर से सुनाई देती गुरुवाणी यकीनन कर्णप्रिय होती है। नए दिन की शुरूआत को आलौकिक करने वाली ये ध्वनियां भारतीय जनमानस के हृदय में बसी हैं। लेकिन, आधुनिक युग में धार्मिक वातावरण अब वैसा नहीं रहा। आज जब एक गली में दो गुरुद्वारे तीन मंदिरों और एक मस्जिद से एक साथ ये ध्वनियां उत्पन्न होती हैं तो 'शोर` का रूप धारण कर लेती हैं, जो कतई कर्णप्रिय नहीं लगती। धर्म के विस्तार की हाे़ड में हमने गली-गली में इतने मंदिर, मस्जिद और गुरुद्वारे खड़े कर दिए हैं कि अब वे धार्मिक स्थल कम और धर्म के नाम पर खोली गई दुकानें ज्यादा लगती हैं।
प्रसाद का 'प्रदूषण` : जैसा कि मैने पहले भी कहा, आस्था के उन्माद में हम भूल जाते हैं, हमारे द्वारा लगाए गए लंगर के बाद पीछे छूटने वाली गंदगी की ओर कोई ध्यान नहीं देता। जहां कहीं भी प्रसाद का वितरण होता है, अकसर वहां इतनी गंदगी छाे़ड दी जाती है कि अगले दिन वहां खड़ा रह कर कोई सांस भी नहीं ले सकता। यह हाल तमाम धार्मिक स्थलों का है। हम प्रसाद ग्रहण करने के बाद उसके पात्र को जहां-तहां फेंक देते हैं। इस परंपरा कोई बदलना होगा। जैसे हम अपने घरों में सफाई रखते हैं, इसी तरह सार्वजनिक स्थलों का भी हमें ध्यान रखना होगा।
अंत में,
उपरो त लिखी गई बातों से मेरा आशय किसी की धार्मिक भावना को ठेस पहुंचाना नहीं है। बल्कि मैं सिर्फ इतना कहना चाहता हूं, धर्म के नाम पर हम ढकोसला न करें। धार्मिक ग्रंथों में लिखी बातों का अध्ययन करें और उन पर चलने का प्रयास करें। दिखावे की भि त से जीवन कभी भवसागर पार नहीं कर सकता। इतिहास गवाह है, जितने भी संत हुए हैं, उन्होंने अपने कर्मों की बदोलत मोक्ष प्राप्त किया। एक व्यवहारिक उदाहरण देना चाहूंगा। आप तय करें, किस की भि त में शि त है।
-एक आदमी किसी धार्मिक स्थल पर जाता हैं, कई घंटे लाइन में खड़े रहने के बाद उसका नंबर आता है, इसके बाद वह घर के लिए बस पकड़ता है। बस में एक वृद्धा खड़ी है, जिसे सीट नहीं मिलती। लेकिन, वह आदमी उसकी ओर से मुंह फेर लेता है और सोने का नाटक करने लगता है।
-एक आदमी कभी किसी धार्मिक स्थल पर नहीं जाता है। उसका मानना है, प्रभु घट-घट में निवास करते हैं। वह अकसर बस में बड़े बुजुर्गों और गर्भवती महिलाआें को अपनी सीट देकर घंटों खड़े होकर सफर करता है। अपने इसी तरह के कर्मों को वह अपनी पूजा मानता है

Monday, October 20, 2008

कब तक माफी मांगते रहोगे भज्जी !

विनोद के मुसान
अभी ज्यादा दिन नहीं हुए, जब आस्ट्रेलियाई गेंदबाज सायंमड और भज्जी विवाद एक लंबे एपिसोड के बाद खत्म हुआ। उस बात भारतीय संप्रभुता की थी, इसलिए पूरा देश भज्जी के साथ खड़ा था। इससे पहले भी भारतीय क्रिकेट टीम में स्थापित हो चुकेइस फिरकी गेंदबाज ने कई गलतियां की। जिनकी वे हर बार 'नादान` बनकर माफी मांग लेते हैं।
व्यवसायिक विज्ञापन फिल्मों में बाल खोलकर नाचने का मामला हो या अंतरराष्ट ्रीय फेम पर मैच के दौरान अपने प्रतिद्वंद्वी खिलाड़ियों से बार-बार पंगा लेने की बात, भज्जी का नाम हर बार उभरकर आया। थप्पड़ विवाद के समय लोगों ने कहा, भज्जी अब तो आपने हद कर दी। जालंधर में बैठी भज्जी की मां बोली, 'मेरा पुत्तर इंज नहीं कर सकदा` लेकिन, टीवी स्क्रीन पर श्रीसंत के बहते आंसू सबने देखे, जो व्यथित था अपने साथी खिलाड़ी के दुर्व्यवहार से। इस एपिसोड का अंत भी भज्जी की माफी के साथ हुआ। हालांकि इसके लिए उन्हें कुछ मैचों में प्रतिबंध की सजा भी भुगतनी पड़ी। लेकिन, अब 'सीता-रावण` विवाद के बाद लगता है विवादों में रहना भज्जी की नियति बन गई है। वे सुधरकर भी सुधरना नहीं चाहते। वे हर बार ऐसी गलती कर जाते हैं, जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है और फिर अगले दिन कहते हैं 'मैनूं माफ कर दो`
गलतियां भी इनसान से ही होती हैं। हम और आप भी आए दिन कुछ कुछ गलतियां कर गुजरते हैं। लेकिन, अगर गलती एक 'शख्सियत` करती है, तो फिर गलती के मायने बदल जाते हैं। गलती 'महा-गलती` बन जाती है। बताने की जरूरत नहींं है कि एक अंतरराष्ट ्रीय परिदृश्य का व्यि अगर कुछ गलत कर गुजरता है तो समाज पर उसका या प्रभाव पड़ता है। भज्जी को भी यह बात समझनी चाहिए कि वे अब जालंधर के बल्टन पार्क में खेलने वाला कोई मामूली 'मुंडा` नहीं है। वह एक अंतरराष्ट ्रीय शख्सियत है, जिसकी हर बात एक अंतरराष्ट ्रीय खबर बन जाती है।
ताजा विवाद में तो भज्जी ने हद ही पार कर दी। अब वे कह रहे हैं, ऐसा उनसे अंजाने में हो गया। कोई भी कहेगा भज्जी आप 'दूध पीते बच्चे` तो नहींं हैं, जो आपसे अनजाने में हर बार गलतियां हो जाती हैं। किसी की धार्मिक भावनाआें को ठेस पहंुचाना भारत में अपराध है और आप अकसर यह अपराध कर जाते हैं।
अंत में
माफी मांग कर कोई छोटा नहीं हो जाता, अच्छी बात है, भज्जी भी इसका अनुसरण करते हैं। लेकिन, उन्हें सीख लेनी चाहिए अपने वरिष्ठ साथी सचिन तेंदुलकर से जो बुलंदियों के शिखर पर पहुंचकर आज भी स्वच्छ और सफेद चादर लिए खड़े है।

Wednesday, October 15, 2008

सादा जीवन, उच्च विचार, यही पहचान हैं उनकी

विनोद के मुसान
15 टूबर को एक संत का जन्मदिन था। बहुत से लोगों को नहीं पता। लेकिन उनका जन्मदिन था। समाचार पत्रों में सरकार, राजनीतिक पार्टियों या किसी संस्था ने कोई विज्ञापन नहीं दिया। शायद वे आज भी जीवत हैं ! इसलिए। लेकिन वे एक सच्चे संत हैं, इसलिए उनकी तरह उनके ' तों` को भी इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए। माफ करना, जिस शख्सियत की मैं बात कर रहा हूं, उन्हें कभी सम्मानित मदर टैरेसा या सिस्टर अल्फोंसा की तरह संत की उपाधि प्रदान नहीं की गई। लेकिन, मेरी नजरों में वे किसी संत से कम नहीं। सादा जीवन उच्च विचार, यही पहचान है उनकी। 15 टूबर, 1931 को रामेश्वरम में एक मछुवारे के घर एक लाल ने जन्म लिया और एक दिन वह अपने कर्मों की बदौलत देश के सर्वोच्च नागरिक बन गए।
नाम बड़ा तो दर्शन भी बड़े। मैं बात कर रहा हूं पूर्व राष्ट ्रपति डा. एपीजे अब्दुल कलाम की। एक ऐसे आदमी की जिन्होंने भारत को विकसित राष्ट ्र बनाने का सपना देखा। सपने तो हम-तुम भी देखते हैं, लेकिन हमारे सपनों में हम अपनी उन्नति को ढूंढते हैं, लेकिन वे हमेशा विश्व कल्याण की बात करते हैं। माफ करना मुझे भी ज्ञात नहीं था कि उनका जन्मदिन है। दफ्तर में एक खबर का संपादन करते हुए पता चला की फलां-फलां स्कूल में बच्चों ने पूर्व राष्ट्रपति का ७४वां जन्मदिन 'चिल्ड्रन एनोवेशन डे` के रूप में मनाया। अपनी सामान्य जानकारी पर अफसोस हुआ, लेकिन उससे भी ज्यादा अफसोस यह देखकर कि किसी भी राजनीतिक पार्टी या संस्था द्वारा उनके जन्मदिन पर एक बधाई का प्रेस नोट तक जारी नहीं किया गया। जरा-जरा सी बात पर हो-हल्ला करने वाले ये लोग कितने अवसरवादी हैं, यह देखकर दुख हुआ। इस बात से आप भी अनभिज्ञ नहीं हैं कि इस देश में सोनिया गांधी, राहुल गांधी, मायावती और सत्ता में बैठे ऐसे अन्य नेताआें के जन्मदिन पर पूरे का पूरा शहर बधाई देने वाले होर्डिंग्स से पाट दिया जाता है। कुछ पूर्व संतों का जन्मदिन आज भी बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। अच्छी बात है। लेकिन, इन सबके पीछे निहित स्वार्थ छीपे हैं। आज कई ऐसे संत हैं, जिन्हें उनके तों ने सिर्फ संत नहीं रहने दिया। बल्कि उनके नाम की आड़ में कई 'संस्थाएं` खोल रखी हैं। जिनको चलाने के लिए उनका जन्मदिन मनाना भी जरूरी हो जाता है। अगर वे ऐसा नहीं करें तो कई लोगों की राजनीतिक और धार्मिक संस्थाएं बंद हो जाएंगी।
खैर इस देश में बुरा लिखने को बुराईयों की कमी नहीं। मिसाइल मैन के जन्मदिन पर मेरी और तमाम दूसरे देशवासियों की तरफ से उनको ढेर सारी बधाईयां। मैं दुआ करूंगा उनके जीवित रहते उनका सपना जरूर साकार हो, ताकी मेरी तरह इस देश के सौ कराे़ड से ज्यादा लोगों को विकसित भारत में रहने का अवसर प्राप्त हो।

Thursday, October 2, 2008

कैसे खुश होगी 'बापू` की आत्मा

विनोद के मुसान
किसी को अपने घर-दफ्तर या कहीं और पहुंचने की इतनी जल्दी भी हो सकती है, यह देखकर बड़ी हैरानी हुई। मन में गुस्सा आया, सोचा यों इस व्यि से इसी की भाषा में बात की जाए। लेकिन, उसी पल गांधी जी का ध्यान आया और मैं मन मसोस कर रह गया। दूसरा, गांधी जयंती पर गांधीगीरी में भी बात कर सकता था, लेकिन उसका समय नहीं था। इसके बाद मैंने उस वृद्धा को सहारा देते हुए अमुक व्यि पर अफसोस जाहिर किया और आगे बढ़ गया। सोचा, ऐसा तो नहीं होना चाहिए था गांधी जी के सपनों का भारत। इस देश में जहां खचाखच भरी बस में बड़े-बू़ढों को देखकर नौजवान अपनी सीट छाे़ड देते हैं, भला ऐसा कोई कैसे कर सकता है।
दरअसल, साप्ताहिक अवकाश होने के चलते एक मित्र ने खाने पर आमंत्रित किया था। बस स्टैंड पर पहुंचकर मैं बस का इंतजार कर रहा था। तभी, विपरीत दिशा को जाने वाली एक लोकल बस आई और लोग उसमें भे़ड-बकरियों की तरह चढ़ने लगे। यहां तक तो ठीक था। लेकिन, अंत में जैसे ही एक वृद्धा बस में चढ़ने लगी, ठीक उसी पल बस भी चलने लगी। वृद्धा बस में चढ़ पाती, इससे पहले भागता हुआ एक युवक आया और वृद्धा को का देते हुए बस में चढ़ गया। वृद्धा जमीन पर पड़ी ठीक से संभल भी नहीं पाई थी कि बस चल पड़ी। मैं सारा मंजर देख रहा था। इसके बाद मेरे पास दो विकल्प थे। या तो मैं किसी तरह बस रुकवा कर उस युवक को सबक सिखाता या वृद्धा को संभालता। पल भर में मन में कई तरह के ख्याल आए, गुस्सा भी आया और हैरानी भी हुई। उस युवक की कम की लाचारी पर अफसोस करने के बाद अंतत: मैंने वृद्धा को उठाया और बगल की एक दुकान से पानी लाकर पिलाया। दुकान वाले को ही वृद्धा को सुरक्षित बस बैठाने का आश्वासन लेकर मैं आगे बढ़ गया।
दिन था, दो टूबर। यानी गांधी जी का जन्मदिवस। इस दिन को भारत ही नहीं वरन पुरी दुनिया में अहिंसा दिवस के रूप में मनाया जाता है। ऐसे में उपरो मंजर की कल्पना कीजिए और फिर कहिए, 'मेरा भारत महान` यकीनन, अगर आप सच्चे भारतीय हैं तो जरूर आपका सिर शर्म से झुक गया होगा। गांधी जैसे महान व्यि तत्व के आदर्श तो बहुत ऊंचे थे, ये तो छोटी सी बात है। बड़े-बू़ढों का सम्मान करो, सड़क पर कू़डा मत फेंकों, पंि में आकार व्यवस्था बनाए रखने में साथ दो आदि तमाम ऐसी व्यवहारिक बातें शायद कुछ लोगों ने सीखी ही नहीं हैं। और कुछ लोग जिन्हें इनका ज्ञान है, वे इन बातों को अपने व्यवहार में ही नहीं लाते। मन में ग्लानि सी होती है, जब कोई अंग्रेज हमारी दरिद्रता, भूख, गरीबी और अल्प व्यवहारिक ज्ञान को कैमरे में कैद कर अपने देश ले जाता है। इस देश में अपार सुंदरता भी है, लेकिन हम उसे प्रस्तुत नहीं कर पाते। इस देश में ज्ञान भी और सम्मान भी, लेकिन हम उसे बांट नहीं पाते। हम लड़ते हैं, झगड़ते हैं और कुछ स्वार्थी लोगों को कहते हैं, आओ देखो हमारा घर जल रहा है, चाहो तो आकर अपनी रोटियां सेंक लो। बापू के सपनों का भारत, शायद ऐसा नहीं रहा होगा।
अंत में
अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है, सुधरने की कसम खाने के लिए किसी खास दिन की दरकार नहीं होनी चाहिए। बापू का जन्मदिवस इस साल की तरह हर साल आएगा। लेकिन, कोशिश यही होनी चाहिए अगली बार जब बापू की आत्मा ऊपर से देखे तो उसे वृद्धा को सहारा देकर बस में चढ़ता कोई युवक दिखाई दे। यकीन मानिए बापू की आत्मा जरूर खुश होगी।