Friday, August 1, 2008

ऑटो वाले को 'ताजमहल` बनाने की सलाह दे आया

जब आज किसी नए शहर में प्रवेश करते हैं तो आपका पहला परिचय उस शहर के ऑटो-टै सी और रि शा चालकों से होता है। मोल-भाव के बाद आप अपने यथा स्थान की ओर चले जाते हैं। लेकिन इससे पहले जब आप चालाकी दिखाते हुए चालक से कहते हैं 'अरे! इतने कैसे ले लोगे, रोज का आना जाना है हमारा`, 'लूट मचा रखी है या?` 'इतने में चलना है तो चलो वरना अपना रास्ता नापो`। यकीन मानिए आपकी इस चालाकी के बाद भी आमतौर पर आप लूट लिए जाते हैं। मतलब आपकी चालाकी के बाद भी आप वाजिफ दाम से ज्यादा देकर ही अपने गन्तव्य तक पहुंचते हैं। ये मेरे-आपके और हिंदुस्तान के हर शहर की कहानी है। एक अनपढ़ ऑटो रि शा चालक कुछ पलों में ही आपके पूरे व्यि तत्व का चित्र अपने दिमाग में खींच लेता है। वह आपके जूते, कपड़ों, कंधे पर टंगे बैग, हाथ में लिए सूटकेस और सिर पर सजी हैट से जान लेता है कि अमुक शख्स से कितना वसूला जा सकता है। बची-कुची कसर आपकी जुबान पूरी कर देती है। रि शे वाले को सुनाई देने वाला आपका पहला स्वर, 'ये रि शा...!`, 'वो भईया...!`, 'अरे सुन...!`, 'सुनो भाई`, 'चलना है या?`। हिंदुस्तान में रि शा-ऑटो वालों के लिए प्रचलित ये स्वर उसे आपका जैसे आई कार्ड हाथ में थमा देते हैं। इन्हीं स्वरों की व्यंजना से वह दाम तक कर लेता है। इसके बाद बात फिर इज्जत की हो तो भला वह भी पीछे यों हटे। थक-हार कर आदमी दो-चार रुपए इधर-उधर कर उसी के बताए दाम पर उसके साथ चलने को मजबूर हो जाता है। यहां पर मैं रि शा चालकों की पैरवी नहीं कर रहा हूं। न ही रि शे वालों से जाे़डकर हमारे-आपके व्यि तत्व की पहचान बता रहा हूं। मैं दिखना चाहता हूं, समाज का वह चेहरा जिससे हम अ सर दो-चार होते हैं। लूटते हैं, पिटते हैं, घिसीयाते हैं और फिर आगे बढ़ जाते हैं। ऐसा नहीं है कि यही हिंदुस्तान की तस्वीर है। यह पूरी तस्वीर नहीं है, लेकिन इसे इसका वृहद्ध रूप कहा जा सकता है। मैं देश में ज्यादा तो नहीं घूमा हूं, लेकिन कई शहर इन्हीं रि शा-ऑटो चालकों की ईमानदारी के लिए भी जाने जाते हैं। इनमें मुंबई को शीर्ष पर कहा जाता है। मुंबई में आप गाड़ी से उतरने के बाद किसी भी ऑटो-रि शा या टै सी वाले से दाम तय कर लीजिए, इसके बाद वहां रह रहे अपने रिश्तेदार को फोन पर पूछिए, ऑटो वाला इतने पैसे मांग रहा है। तो वह यही कहेगा बिल्कुल ठीक है, आप उसमें बैठकर आ जाइए। यह मेरा खुद का अनुभव भी है। लेकिन, भारत के अधिकतर शहरों में आपको इस मामले में कटु अनुभव को ही ग्रहण करना पड़ेगा।
जालंधर में रहते हुए अपने तीन अनुभव आपके साथ साझा करना चाहूंगा।
पहला-जब मैं पहली बार जालंधर आया। रि शे वाले ने उस व त रेलवे स्टेशन से घर तक आने के मुझसे उतने पैसे लिए, जितने में मैं अब रेलवे स्टेशन से घर तक दो बार आता हूं।
दूसरा-देहरादून में तीन दिन की छुट् टी काटकर जब मैं जालंधर बस स्टैंड पर पहुंचा तो जून की भरी दोपहरी में पसीने से बूरेहाल था। मेरे घर की तरफ जाने वाला एक ऑटो चालक जोर-जोर से आवाज दे रहा था। मैं जाकर ऑटो में बैठ गया। लेकिन, भाई ने आधा शहर घुमाने के बाद मुझसे किराया भी पहले ही ले लिया और आधे रास्ते में छाे़ड दिया। मैं उस व त उससे लड़ने या उलझने की स्थिति में भी नहीं था और न ही चाहता था।
तीसरा-मौसम खुशगवार देकर हम तीन मित्रों ने बाजार घूमने की योजना बनाई। हम लोग बाजार गए और जाते हुए वाजिफ पैसे देकर, बाजार में खरीददारी करने लगे। इसके बाद बीयर पी, बारिश में भीगे और खूब मस्ती की। आते हुए उसी रूट पर जब मैने उसे बनते पैसे दिए, तो ऑटो वाला उसके डबल पैसे मांगने लगा। बहुत गुस्सा आया। उसे उसी के मुताबिक पैसे भी दिए, लेकिन इससे पहले उससे थाे़डी बहुत तकरार भी कर ली। ...और आते-आते उसे 'ज्यादा दिए` पैसों से 'ताजमहल` बनाने की सलाह भी दे डाली।

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