Saturday, August 9, 2008

निरंतरता

पंछी आते हैं आंगन में मेरे
और
घरौंदा बना लेते हैं
आम की उस डाल पर
जो दादा जी ने लगाया था
तब वे बू़ढे न थे
उनकी मूछों में ताव
और
भुजाआें में बल था
उनकी छांव में
एक परिवार बसता था
व त गुजरा
नन्हा पौधा बड़ा हो गया
और दादा जी बूढे हो चले
लेकिन
उनका लगाया नन्हा पौधा
आज भी खड़ा है आंगन में मेरे
वही दादाजी की मूछों वाला ताव
और अपनी शाखाआें में बल लिए
जो देता है फल
और हर आने जाने वाले को छांव
सावन में जब बच्चे झूला डालते हैं
उसकी शाखाआें पर
तब
उठती किलकारियां
तो झूम उठती हैं उसकी हर एक पत्तियां
कभी मैं भी झूलता था उसकी शाखाआें पर
झूला डाल, ...और अब मेरा बच्चा
मैं जानता हूं व त केसाथ
आम का ये पे़ड
जो लगाया था दादाजी ने मेरे
उन्हीं की तरह एक दिन बू़ढा हो जाएगा
लेकिन
खुशी होती है
उसके आस-पास उगते
उन नन्हे पौधों को देखकर
जो अब मैनें लगाए हैं
ये पौधे भी
इसी आम के पे़ड की तरह
एक दिन वृह्द आकार ले लेंगे
और
और फिर डालेंगी आने वाली पीढ़ियां इन पर झूला
मेरी तरह, मेरे बच्चे की तरह और....!
इति।

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