Saturday, September 13, 2008

इस परंपरा को आगे बढ़ाएं

विनोद मुसान
उत्तराखंड के सुदूरवर्ती गांवों में आज भी एक परंपरा जीवित है। जिसका अनुसरण करने पर काफी हद तक बिगड़ते पर्यावरण को बचाया जा सकता है। आमतौर पर हम अपने अहम पलों को यादगार बनाने के लिए कुछ ऐसा कराना चाहते हैं, जिसकी अमिट छाप हमेशा बनी रहे। ऐसा ही एक उदाहरण इस राज्य के कई गांवों में आज भी देखने को मिलता है। यहां जब भी किसी घर से शादी के बाद लड़की विदा होती है तो तमाम रस्मों के बाद वर-वधु के हाथ से विदाई से पूर्व एक अंतिम रस्म निभाई जाती है। इसके तहत वर-वधु को घर के आंगन में एक फलदार पौधा लगाना होता है। जो उनके पवित्र बंधन का प्रतीक और उस घर की खुशहाली का आशीर्वाद स्वरूप माना जाता है, जिस घर से लड़की विदा होती है। परंपरा के अनुसार इस व त बेटी भगवान से प्रार्थना करती है कि आज मैं इस घर से विदा हो रही हूं, लेकिन इस फलदार वृक्ष के रूप में मेरी शुभकामनाएं हमेशा मेरे बंधुवरों से जु़डी रहेंगी।
इस प्रथा की शुरुआत की थी चमोली जिले के एक शिक्षक कल्याण सिंह ने, जिसे उन्होंने मैती आंदोलन का नाम दिया। आंदोलन को आगे बढ़ाने में पर्यावरणविद् सुंदरलाल बहुगुणा, चं़ढीप्रसाद भट् ट और चिपको आंदोलन की प्रमुख नेत्री गौरा देवी ने अहम भूमिका निभाई।
बात अगर बिगड़ते पर्यावरण की हो तो फिर हम अपने गांव, शहर और देश की ही बाते यों करें, यह समस्या पूरे विश्व की है। बिगड़ते पर्यावरण के कारण आज धरती पर जीवन का अस्तित्व खतरे में हैं। विश्वभर में एक दिन में जितनी शादियां होती हैं, उतने ही वृक्ष अगर एक दिन में इस धरती पर रोपे जाएं तो निश्चिय ही इसके सुखद परिणाम सामने आ सकते हैं। फिर शादी ही यों इस पहल को हम और आगे बढ़ा सकते हैं। शादी की सालगिराह, बच्चे को जन्मदिन, होली-दिवाली और तमाम ऐसे अवसर जिन्हें हम खास बनाने के लिए एक पल में हजारों रुपए हंसते-हंसते उठा देते हैं। ऐसे मौको पर हमारे द्वारा किए गए फिजूल खर्च हमें कुछ पल की खुशी तो देते हैं, लेकिन वास्वतिकता में इसके बाद हमारा हाथ खाली ही रहता है। योंकि ऐसा करकेहम सिर्फ गंवाते है, सृजन नहीं करते। जबकि इन पलों को खास बनाते हुए अगर हम धरती पर एकपौधा रोपते हैं, तो भविष्य में इसके सुखद परिणाम आना निश्चित है।
इस बारे में गढ़वाल विश्वविद्यालय में कार्यरत प्रो. डीआर पुरोहित कहते हैं कि इस आंदोलन को वह अंतरराष्ट ्रीय फेम नहीं मिल पाया, जिसकी इसको दरकार थी। सुखद होता अगर सरकार ने भी इस दिशा में थाे़डा प्रयास किया होता। लेकिन, ऐसा नहीं हो पाया। प्रो. पुरोहित आगे कहते हैं अभी भी देर नहीं हुई है, अगर हम ठान ने तो शुरूआत तो आज भी हो सकती है। ...और फिर यह धरती पराई तो नहीं, धरती हमारी मां है। हर संतान का कर्त्यव्य बनता है कि वह अपनी मां के जख्मों पर मरहम लगाए।

1 comment:

राज भाटिय़ा said...

बहुत सुन्दर परंपरा हे. धन्यवाद