Monday, September 29, 2008

पाक से दोस्ती


1999 में जब हमारे प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी पाकिस्तान यात्रा केदौरान वहां केप्रधानमंत्री नवाज शरीफ से गले मिल रहे थे, ठीक उसी दौरान पाकिस्तानी फौजें कारगिल की पहाड़ियों पर चढ़ाई कर रही थी। दोस्ती की आड़ में पाकिस्तान ने जो खंजर हमारी पीठ में घोंपा था, उसे मैंने श्री वाजपेयी जी के शब्दों में कुछ यूं बयां किया...

तेरी दोस्ती का ऐसा कायल हुआ हूं मैं
खुद अपनी ही जमीं पर घायल हुआ हूं मैं

तेरी
वफा की ख्वाहिश वर्षों तलक रही

अब तो इंतहा की भी हद गुजर चुकी

आज भरे बाजार में रुसवा हुआ हूं मैं
खुद अपनी ही जमीं पर घायल हुआ हूं मैं

तू अपनी जफा पर कभी न हुआ शर्मिंदा
बस ये देखते ही देखते हम रह गए

व त का देखो कैसा हुआ तसव्वुर
तेरी दोस्ती की ख्वाहिश में बह गया हूं मैं

सुना
था मौसम की तरह दोस्त भी बदल जाते हैं
हम समझते रहे पत्थर भी पिघल जाते हैं

पर तू न बदला ऐ मेरे दोस्त
यही गम अपने दिल में लिए जाता हूं मैं

तेरी
दोस्ती का ऐसा कायल हुआ हूं मैं
खुद अपनी ही जमीं पर घायल हुआ हूं मैं


यह कविता दयानंद ब्रिजेंद्रा स्वरूप महाविद्यालय, देहरादून (डीबीएस कालेज) की वार्षिक पत्रिका 'विज्ञानदा` वर्ष 1998-99 केअंक में प्रकाशित हो चुकी है। मैं उस व त बी.एससी तृतीय वर्ष का छात्र था, पहली दो लाइनें मेरे अजीज मित्र श्री अतुल भंडारी की हैं, जो उन्होंने बातों ही बातों में कह दी थीं। इसके लिए उन्हें धन्यवाद।)

Friday, September 26, 2008

बंद करो फिल्मी लोगों को 'सितारे` कहना

विनोद के मुसान
अगर 'फिल्मी लोग` सितारों सी चमक बिखेरते तो, जरूर इनके चेहरों पर सितारों सा नूर होता। लेकिन, अफसोस ऐसा नहीं है। इनकी चमक सिनेमा के पर्दे पर तो दिखाई देती है मगर असल जिंदगी में इनके चेहरे धुंधले से नजर आते हैं। इसलिए अब व त आ गया है, जब आम लोगों को भी इन्हीं की तरह प्रोफेशनल बनकर सोचना पड़ेगा। 'सितारों` को सितारा कहना बंद करना पड़ेगा। एक हाथ से टिकट के पैसे लो, दूसरा लोगों को वो दिखाओ, जिसके लिए उन्होंने पैसे खर्च किए हैं। बात खत्म। रुपहले पर्दे के सितारे...। अरे...! किस बात के सितारे भाई? पर्दे पर नाच-गा कर ऐसा कौन सा तीर मार लिया, जो आपको सितारों का दर्जा दे दें।
वर्तमान परिदृश्य में सिनेमाई पर्दे की जो तस्वीर उभर कर सामने आ रही है, इसके बाद तो इन्हें सितारा कहना भी सितारों की तौहीन है। सितारे इस जग को रोशन करते हैं। रात में टिमटिमा कर हमारी आंखों को सुकून देते हैं। बच्चों के सपनों में बसते हैं और दादा-दादी की कहानियों में आकर हमें मीठी लोरी सुनाते हैं। सदियों से सितारों ने दुनिया में नूर बिखेरने का काम किया है। पता नहीं लोगों ने कब और यों पर्दे पर नाचने-गाने वालों को 'सितारा` कहना शुरू कर दिया। जिस किसी ने भी ये शुरुआत की होगी, जरूर हकीकत की दुनिया से बाहर जीता होगा। अच्छा लगता अगर इस परंपरा के साथ देश के महान सुपूतों का नाम जु़डता। महात्मा गांधी, सुभाष चंद्र बोस, शहीदे आजम भगत सिंह, रवींद्र नाथ टैगोर, मदर टैरेसा और कई ऐसी महान शख्सियतों को सितारा कहना सुखद लगता है, जिन्होंने अपना पूरा जीवन दूसरों की भलाई में लगा दिया। इनके द्वारा किए गए कामों की चमक आज भी बरकरार है और सदियों तक रहेगी।
रही बात फिल्म इंडस्ट्री में सितारे कहलाने वाले कलाकारों की, तो मुझे नहीं लगता इनमें से किसी एक ने भी कोई ऐसा काम किया हो (अभिनय को छाे़डकर) जिसे आने वाली पीढ़ी याद रखे।
आम लोग इन लोगों को भगवान की तरह पूजते हैं। भारत में तो ऐसे लोगों की भी कमी नहीं जो घर में फिल्मी कलाकारों की फोटो की पूजा करते हैं। इनका जन्मदिन आने पर बाकायदा पार्टी आयोजित की जाती है, केक काटकर इनकी फोटो को 'खिलाया` जाता है। चिढ़ होती है ऐसे ढकोसलों को देखकर। दो रोज पहले की बात है। मैं एक समाचार पत्र में एक संक्षिप्त सी खबर पढ़ रहा था। सलमान खान की एक फैन ने उसकी दुल्हन के लिए आठ लाख रुपए कीमत की डोली तैयार की है, जिसे वह उसकी शादी में गिफ्ट करना चाहती है। उसी समाचार पत्र के एक हिस्से में बिहार, उड़ीसा में आई बाढ़ का जिक्र भी था और बाढ़ पीड़ितों की मदद को गुहार भी। यकीन मानिए इस समाचार को पढ़ने के बाद उस 'दानी फैन` के लिए मन से कोई भी अच्छी बात नहीं निकली।
पीछे कुछ फिल्मी कलाकारों ने राजनीति में आकार देश सेवा करने की पहल भी की। आम जनता को लगा उनके हीरो परदे की तरह संसद में भी धूम मचाएंगे। उनकी सारी मुश्किलें फिल्म के 'एेंड` की तरह सुखद क्षणों के साथ खत्म हो जाएंगी। लेकिन, असल जिंदगी में या हो रहा है, ये सब जानते हैं। उत्तरी मुंबई के मतदाताआें को तो अपने फिल्मी सांसद को ढूंढ कर लाने वाले को बतौर ईनाम एक कराे़ड रुपए देने तक की घोषणा कर दी गई थी। फिल्मी परदे पर तोते की तरह पटर-पटर बोलने वाले ये 'माननीय` जब एक बार किसी को थप्पड़ मारने के केस में फंसे तो इनका चेहरा टीवी पर देखने लायक था। बोलती जैसे बंद हो गई, जुबान ने दिमाग का साथ छाे़ड दिया और ये हकलाने लगे।
स्टार का जिक्र हो और 'सुपर स्टार` की बात न हो, ऐसा हो ही नहीं सकता। एक जमाने से 'सुपर स्टार` का तमगा लिए घूम रहे बिग 'बी` की पूरी जिंदगी अपने इस तमगे को बचाने में ही चली गई। लोगों ने प्यार दिया, सम्मान दिया 'सुपर स्टार` का तमगा दिया। अब कोई इनसे पूछे माननीय आपने समाज को या दिया। इतनी शोहरत पाने के बाद चाय में थाे़डी 'चीनी कम` रह भी जाती तो या होता। आपने पूरी जिंदगी दोनों हाथों से दौलत बटोरी है। कितना अच्छा होता अगर आप इस दौलत का एक छोटा सा अंश समाज की भलाई में लगा देते। यकीन मानिए, इस दुनिया से जाने के बाद भी बिग 'बी` कहलाते।

Saturday, September 20, 2008

एक खुला पत्र 'दोस्त` के नाम


उस बच्ची को चेहरा आज भी आंखों के सामने आ जाता है। जब उसने कहा था 'बाबा मैं भी स्कूल जाना चाहती हूं।` ...और अचानक उसके बाबा ने कहा 'हां बेटा यों नहीं, तुम भी कल से स्कूल जाओगी।` हमें खुशी हुई, चलो हम अपने प्रयास की कड़ी में एक और ऐसी बच्ची का नाम जाे़ड पाए, जो अब शिक्षित होकर समाज में उजाला फैलाएगी।
थै स अंजुला। तुमने कर दिखाया।
मैं जनता हूं, तुम आज भी इस नेक काम में लगी हो। दो साल पहले जब तुम स्कालरशिप लेकर अमेरिका पढ़ने चली गई थी, उसकेबाद से मुलाकात नहीं हुई। लौटी तो कुछ पुराने दोस्तों ने बताया कि तुम फिर से अपने काम में लग गई हो। गरीब बच्चियों को शिक्षा के मंदिर तक पहुंचाने का तुमने जो बीड़ा उठाया है, मैं उसे सलाम करता हूं। हां अफसोस जरूर रहेगा कि तुम्हारी इस मुहिम में मैं बहुत ज्यादा कुछ नहीं कर सका। जिस समय तुम अमेरिका की उड़ान भर रही थी, उस व त मैं लाहौरी ए सप्रेस में बैठकर एक नए अखबार के साथ जु़डने जालंधर की यात्रा पर था। इन दिनों अचानक कुछ ऐसा वाकया सामने आया कि तुम्हारी याद आ गई। सोचा फिर कभी मौका मिला तो जरूर मिलकर काम करेंगे। ऊपर लिखी लाइनों को पढ़कर शायद तुम्हारे सामने भी अंजनीसैण (टिहरी गढ़वाल) की उस बच्ची का चेहरा याद आ गया हो, जो उस व त घास लेकर आ रही थी। वह पढ़ना चाहती थी, लेकिन उसके पारिवारिक हालात उसे इस बात की इजाजत नहीं दे रहे थे। फिर हमने मिलकर पहल की और उसके बाबा को मना लिया। मुझे याद है, वह बच्ची बराबर स्कूल जाए, इसके लिए तुमने उस बच्ची की पढ़ाई का पूरा खर्च भी अपने कंधों पर ले लिया था। ...और फिर यह तो एक उदाहरण है। मैं जानता हूं, तुमने अपनी संस्था के माध्यम से सैकड़ों बच्चियों को गोद लिया है, जिनकी पढ़ाई का खर्च तुम आज भी उठा रही हो। तुमने खुद जिस स्तर की पढ़ाई की थी, उसके बाद तुम चाहती तो किसी भी मल्टीनेशनल कंपनी के साथ जु़डकर एक आलीशान जिंदगी गुजार सकती थी। कोई फर्क नहीं पड़ता, ज्यादातर लोग आज ऐसा ही कर रहे हैं। हां, इतना जरूर है फिर शायद मैं तुम्हें यह खुला पत्र कभी नहीं लिख पाता। लेकिन, आज मैं गर्व से कहता हूं, तुम मेरी दोस्त हो। तुम्हें याद होगा, जब हम शुरू में मिले थे तो मैं तुम्हें मैम कहकर संबोधित करता था, फिर तुमने अपने साथ जु़डे छोटी-बड़ी उम्र के साथियों की तरह मुझे भी नाम लेकर संबोधित करने का हक दिया। शुरू में मैं कई बार गलती कर जाता था और बार-बार तुम्हें मैम कहकर पुकारता था। अच्छा लगा तुम्हारा ये खुलापन। यकीन मानो इसके बाद तुम्हारे इस दोस्त की नजरों में तुम्हारा कद और ऊंचा हो गया। इन दिनों मैं पंजाब में हूं। शिक्षा को लेकर यहां के हालात भी इतर नहीं हैं। पुस्तैनी जायजाद और डालर की चमक में शिक्षा की अलख बराबर धूमिल होती नजर आ रही है। ...और जिनके पास गंवाने को कुछ नहीं, उनके हालात के बारे में तुम खुद ही अंदाजा लगा सकती हो। युवा वर्ग नशे के दलदल में फंसा है। अपराध का ग्राफ तेजी से बढ़ रहा है। लेकिन, अच्छी खबर यह है कि अंधेरे के इस मायाजाल में तुम्हारी तरह कुछ लोग हैं, जो ज्ञान की अलख को बराबर जलाए रखने का प्रयास कर रहे हैं। उम्मीद की जा सकती है आने वाले समय में हालात बेहतर होंगे।
अंत में,
मेरी आदरणीय दोस्त, इस पत्र को पढ़ने के बाद शायद तुम्हारे दिमाग में यह प्रश्न उठे कि मैंने तुम्हें यह खुला पत्र यों लिखा। तो इस बारे में मैं सिर्फ इतना कहना चाहूंगा, मेरे देश को मेरी दोस्त की तरह और बेटियों की जरूरत है, अगर किसी और को वह मिल जाएं तो उनसे जरूर दोस्ती कर लेना।
भूलचूक के लिए क्षमायाचना के साथ
तुम्हारा दोस्त
विनोद के मुसान

Thursday, September 18, 2008

मोनिका के चालीस प्रेम पत्र-एक


विनोद मुसान
अपने
अच्छे दिनों में मोनिका ने जब अपने प्रेमी अबू सलेम को प्रेम पत्र लिखे होंगे, तब शायद उसने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि एक दिन उसके इन प्रेम पत्रों को भरे बाजार में उछाल कर उसे रुसवा किया जाएगा। आमतौर पर प्यार में चोट खाए प्रेमी द्वारा ही ऐसा किया जाता है। लेकिन, यहां तो कहानी ही दूसरी है। इस बार मोनिका केदिल पर दाग उसके प्रेमी ने नहीं बल्कि एक न्यूज चैनल ने लगाए हैं। भद् दे अंदाज में मोनिका के प्रेम पत्रों की प्रस्तुति देखने के बाद मन में एक टीस सी उठी और दिल ने कहाऱ्यूं रुसवा करो किसी के टूटे दिल को बाजार में, पाती प्रेम की लिखी थी उसने किसी के प्यार में, अब उसका सि का ही खोटा निकला, तो या यूं ही फेंक दोगे उसे भरे बाजार में। ...और फिर यह हक 'आपको` किसने दिया कि किसी के निजी प्रेम पत्रों को यूं बाजार में नीलाम करो। मोनिका और उसका प्रेमी अगर गुनाहगार हैं तो उन्हेंे सजा देने का अधिकार आपको किसने दिया। एक न्यूज चैनल के हाथ लगे मोनिका द्वारा अबु सलेम को लिखे चालीस प्रेम पत्रों का चैनल द्वारा कुछ इस तरह प्रस्तुतिकरण किया जा रहा है, जैसे इस बार उसने शताब्दी की सबसे महानत्म खोज कर डाली हो।
..............एक बानगी देखिए
-कहने को न्यूज चैनल और न्यूज की शुरूआत कुछ इस अंदाज में की जाती है, जैसे अब अगले आधे घंटे तक मदारी का खेल दिखाया जाने वाला हो। -टीवी स्क्रीन पर मोनिका की हैंडराइटिंग में पत्रों को दिखाया जा रहा है, जिसकी एक-एक लाइन दर्शक बड़ी आसानी से पड़ सकते हैं। -साथ में सुनाई देती है एंकर की भद् दी सी आवाज। आवाज में कुछ इस तरह की शरारत, जैसे स्क्रीन पर किसी वेश्या द्वारा खुलेआम अंग प्रदर्शन किया जा रहा हो। -एंकर द्वारा प्रेम पत्रों में लिखी एक -एक लाइन को कुछ इस अंदाज में पड़कर सुनाया जाता है जैसे रॉ के किसी अधिकारी के हाथ आईएसआई का खुफिया पत्र लग गया हो। ऱ्यहां तक तो ठीक था, लेकिन जब न्यूज एंकर प्रेम पत्रों में लिखी कुछ ऐसी बातों को प्रस्तुत करता है (जिनको यहां पर लिखना भी शायद अनुचित हो) जो नहीं करनी चाहिए तो दुख होता है यह सोच कर कि पत्रकारिता के नाम पर टीवी चैनलों में ये या बेचा जा रहा है।
क्रमश
: .....

मोनिका के चालीस प्रेम पत्र-दो


विनोद मुसान
इसके बाद मन में सवाल उठता है आप किसी की निजी बातों को उत्पाद कैसे बना सकते हो? मोनिका ने एक अपराध किया था, जिसकी उसने सजा भी भुगत ली। प्यार करना कौन सा अपराध है। यहां तक कि किसी अपराधी को भी आप प्यार करने से नहीं रोक सकते। मोनिका द्वारा डॉन के नाम से मशहूर अबु सलेम को लिखे गए चालीस प्रेम पत्र उसकी निजी संपत्ति हैं। यह बात और है कि वह आज एक टीवी चैनल के हाथ लग गए। मोनिका के जीवन का चढ़ता सूरज जब सातवें आसमान पर था, तब वह एक गलती कर बैठी और उसे एक अनजाने शख्स से प्यार हो गया। बाद में पता चला कि वह अनजाना शख्स कोई और नहीं बल्कि 'डॉन` है। मोनिका ने गलती की और उसकी सजा भी भुगती और आज भी भुगत रही है। उसके शब्दों में ''आज मेरे पास रहने को एक मकान भी नहीं है, लोग मुझसे डरते हैं। मुझसे अनजाने में कुछ बड़ी गलतियां हो गई, जिन्हें मैं अब ठीक करना चाहती हूं। मैं समाज में फिर से खड़ा होना चाहती हूं, मैं लोगों को बताना चाहती हूं कि मोनिका वैसी नहीं है, जैसा मीडिया में उसे प्रस्तुत किया जाता है।`` खैर मोनिका द्वारा 'बिग बॉस` के घर में कही गई इन बातों इतना तो स्पष्ट हो जाता है, घर का भूला एक बार फिर घर लौटना चाहता है, लेकिन उसकी इस कोशिश में हर बार उसका अतीत उसकेसामने खड़ा हो जाता है। वैसे मैं यहां पर स्पष्ट कर देना चाहता हूं, कि मुझे मोनिका से कोई हमदर्दी नहीं है। मैं भी उसको उतना ही जानता हूं, जितना एक सैलिब्रिटी के बारे में आम लोग जानते हैं। लेकिन पत्रकार होने केनाते नजरे हर व त कुछ न कुछ ढूंढती रहती हैं। इस बार मोनिका के चालीस पत्र सामने आ गए। हर बार मोनिका जब अदालत में पेशी के लिए कैदी वाहन से उतरती थी, मीडिया केकैमरे उसे कैद कर लेते थे। अखबार के दफ्तरों में अकसर उसकी भोली सी सूरत और हर बार नये सूट की चर्चा जरूर होती रही है। लगता था इस रहस्यमय चेहरे के पीछे बहुत कुछ है, जो दुनिया के सामने नहीं आया। व त गुजरा और मोनिका को अदालत ने कुछ हिदायतों के साथ बरी कर दिया। इसके बाद उसकेबारे में खूब छपा, टीवी वालों ने भी खूब मसाला बटोरा। इसके बाद कुछ व त गुजरा और फिर सब सामान्य सा हो गया। लेकिन इस बार बिग बॉस के घर में मोनिका दर्शकों से रू-ब-रू थी। पहले हफ्ते में उसकी चुप्पी ने साधगी का दामन थामे रखा। लेकिन जैसे-जैसे मोनिका ने बोलना शुरू किया, उसके व्यि तत्व का झोल खुलकर सामने आया। इसके बाद लगा कबाब में कंकड़ हैं। तस्वीर उतनी साफ नहीं है, जितनी दिखाई देती है। हमदर्दी बटोरना एक बात है, लेकिन उसे कायम रखने के लिए एि टंग की नहीं एक परिप व व्यि तत्व की जरूरत होती है, जिसमें शायद मोनिका मात खा गई। आगे उसका जीवन किस ओर माे़ड लेगा, यह भी मोनिका का व्यि तगत मामला है, लेकिन मोनिका की जिंदगी को उसकी मर्जी के बगैर जिस तरह से दूसरे लोग उत्पाद बनाकर बाजार में बेच रहे हैं, ऐसा नहीं होना चाहिए।
पत्रकारिता के इस बिगड़ते स्वरूप पर अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें।

Monday, September 15, 2008

हिन्दीं हैं हम, वतन है हिंदोस्तां हमारा

विनोद मुसान
जिस तरह एकता कपूर नहीं जानती कि वह महिलाआें को केंद्रबिंदु बनाकर एक के बाद एक धारावाहिक बनाकर उनका कितना बुरा कर रही हैं, ठीक उसी तरह वर्तमान पीढ़ी के पत्रकार हिन्दी को किस गर्त में ले जा रहे हैं, वह भी नहीं जानते। पत्रकारिता का नया स्वरूप, जिसे अब ट्रैंड कहा जाता है, हिन्दी को प्रतिदिन दयनीय स्थिति में पहुंचा रहा है। समय की मांग और आम बोलचाल की भाषा में अंग्रेजी की घुसपैठ के नाम पर आज अंग्रेजी के शब्दों को हिन्दी में पढ़ाया जा रहा है। इसे अपमान नहीं तो या कहेंगे? हिन्दी शब्दकोष का खजाना इतना बड़ा है कि हर शब्द की अभिव्यि त केलिए हिन्दी में एक नहीं चार-चार शब्द मौजूद हैं। लेकिन आजकल पत्रकार अंग्रेजी के शब्दों को हिन्दी में गोल-मोल कर ऐसे पेश करते हैं, जैसे अगर इन शब्दों को वाकई में हिन्दी में लिख दिया गया तो अनर्थ हो जाएगा। अंग्रेजी कोई बुरी भाषा नहीं है, हमें इसे भी जानना चाहिए। आखिर यही एक भाषा (अंग्रेजी) है जिसके जरिए हम अंतरराष्ट ्रीय वार्तालाप कर सकते हैं।
ऐसा नहीं है कि हिन्दी का बे़डागरक करने में केवल पत्रकारों या हिन्दी सामाचार पत्रों का ही हाथ है। नेता से लेकर अभिनेता तक, अध्यापक से लेकर अधिकारी तक रोज हिन्दी का कत्ल करते हैं। यहां पर मैं खासकर पत्रकारों की बात इसलिए कर रहा हूं, योंकि मैं भी इसी बिरादरी से जु़डा एक जीव हूं। सामाचार पत्र समाज का आईना होता है। हम, रोज सवेरे पाठकों के सम्मुख जो प्रस्तुत करते हैं, उसे आमतौर पर पत्थर की लकीर मान लिया जाता है। ऐसे मैं जब हम अंग्रेजी के 'शब्द विशेष` को रोज हिन्दी में लिखकर पाठकों को पढ़ाते हैं, तो इसका एक चलन सा निकल पड़ता है। इसके बाद अध्यापक-टीचर, प्र्राचार्य-प्रिंसिपल, विद्यार्थी-स्टूडेंट, कक्षाएं- लास, महाविद्यालय-कालेज, विश्वविद्यालयऱ्यूनिवर्सिटी, बाजार-मार्केट, विज्ञान-साइंस, प्रौद्योगिकी-टे नोलॉजी, कुर्सी-चेयर, मेज-टेबल, समाचार पत्र-न्यूज पेपर, सरकार-गवर्नमेंट, योजना-स्कीम, परियोजना-प्रोजे ट बन जाता है।
ऐसे में यदि किसी पत्रकार भाई से पूछा जाता है कि भाई यों इतना अंग्रेजी केशब्दों का प्रयोग करते हो। तर्क होता है, ''लोकल रीडरस की भावनाआें को ध्यान में रखना पड़ता है और अब तो यही ट्रेंड चल रहा है। आज इसका यूज नहीं करोगे तो पीछे छूट जाओगे। अब तो आम बोलचाल की भाषा में भी बिना अंगे्रजी के घालमेल किए काम ही नहीं चलता। ...और फिर हम कौन सा हिन्दी के ठेकेदार बैठे हैं, अपन को तो बस नौकरी करनी है। चलने दो जैसा चल रहा है।``
चलो मान लिया अब आम बोलचाल की भाषा में बिना अंग्रेजी के काम नहीं चलता, लेकिन लेखनी में हम यों अंग्रेजी का बेजा इस्तेमाल कर रहे हैं। यों नहीं हम हिन्दी को हिन्दी में लिखते। वैसे भी २१वीं सदी में आते-आते हिन्दी अपना मूल स्वरूप तो खो ही चुकी है और हिन्दी की जननी संस्कृत भाषा तो लगभग लुप्तप्राय सी हो गई है। ऐसे में या हमें चिंता नहीं करनी चाहिए कि हम इसके बचे-खुचे स्वरूप को बचाए रखें। हम पत्रकारिता करते हैं और हिन्दी में पत्रकारिता करते हैं। हिन्दी मतलब हिन्दी। इसको बचाना हमारा धर्म भी है और कर्त्यव्य भी। आखिर इसी हिन्दी ने हमें रोजी भी दी है। मैं कहना चाहूंगा, हिन्दी के साथ अंग्रेजी का घालमेल करने वाले उन हिन्दी पत्रकारों से 'दोस्तों हिन्दी को जानो-पहचानों, इससे प्यार करो और इसका विस्तार करो, बताने की जरूरत नहीं है कि यह हमारी राष्ट ्रीय भाषा है। इसमें मिठास भी है और उल्लास भी। फिर यों हिन्दी केसाथ अंग्रेजी की खिचड़ी पकाते हो।
गर्व से कहो -
सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा
हम बुलबुलें हैं इसकी, ये गुलिस्तां हमारा
हिन्दी हैं हम हिन्दी हैं हम, वतन है हिंदोस्तां हमारा।
हां चलते-चलते बात वहीं खत्म करना चाहूंगा, जहां से मैंने शुरू की थी। शुरू में जिक्र आया था एकता कपूर का। या आपको नहीं लगता, घरों में लड़ाई-झगड़े और साजिश करने के जितने नुख्शे एकता कपूर ने औरतों को सिखा दिए हैं, वे कम नहीं है। कोई अगर एकता कपूर से पूछे तुमने इस समाज को या दिया है। तो शायद वह यह कहने में भी गुरेज न करे कि मैंने नारी का असली चेहरा परदे पर ला दिया। योंकि एकता जो कुछ अपनी धारावाहिकों में दिखाती है, उसके लिए वही सच्चाई है।

Saturday, September 13, 2008

इस परंपरा को आगे बढ़ाएं

विनोद मुसान
उत्तराखंड के सुदूरवर्ती गांवों में आज भी एक परंपरा जीवित है। जिसका अनुसरण करने पर काफी हद तक बिगड़ते पर्यावरण को बचाया जा सकता है। आमतौर पर हम अपने अहम पलों को यादगार बनाने के लिए कुछ ऐसा कराना चाहते हैं, जिसकी अमिट छाप हमेशा बनी रहे। ऐसा ही एक उदाहरण इस राज्य के कई गांवों में आज भी देखने को मिलता है। यहां जब भी किसी घर से शादी के बाद लड़की विदा होती है तो तमाम रस्मों के बाद वर-वधु के हाथ से विदाई से पूर्व एक अंतिम रस्म निभाई जाती है। इसके तहत वर-वधु को घर के आंगन में एक फलदार पौधा लगाना होता है। जो उनके पवित्र बंधन का प्रतीक और उस घर की खुशहाली का आशीर्वाद स्वरूप माना जाता है, जिस घर से लड़की विदा होती है। परंपरा के अनुसार इस व त बेटी भगवान से प्रार्थना करती है कि आज मैं इस घर से विदा हो रही हूं, लेकिन इस फलदार वृक्ष के रूप में मेरी शुभकामनाएं हमेशा मेरे बंधुवरों से जु़डी रहेंगी।
इस प्रथा की शुरुआत की थी चमोली जिले के एक शिक्षक कल्याण सिंह ने, जिसे उन्होंने मैती आंदोलन का नाम दिया। आंदोलन को आगे बढ़ाने में पर्यावरणविद् सुंदरलाल बहुगुणा, चं़ढीप्रसाद भट् ट और चिपको आंदोलन की प्रमुख नेत्री गौरा देवी ने अहम भूमिका निभाई।
बात अगर बिगड़ते पर्यावरण की हो तो फिर हम अपने गांव, शहर और देश की ही बाते यों करें, यह समस्या पूरे विश्व की है। बिगड़ते पर्यावरण के कारण आज धरती पर जीवन का अस्तित्व खतरे में हैं। विश्वभर में एक दिन में जितनी शादियां होती हैं, उतने ही वृक्ष अगर एक दिन में इस धरती पर रोपे जाएं तो निश्चिय ही इसके सुखद परिणाम सामने आ सकते हैं। फिर शादी ही यों इस पहल को हम और आगे बढ़ा सकते हैं। शादी की सालगिराह, बच्चे को जन्मदिन, होली-दिवाली और तमाम ऐसे अवसर जिन्हें हम खास बनाने के लिए एक पल में हजारों रुपए हंसते-हंसते उठा देते हैं। ऐसे मौको पर हमारे द्वारा किए गए फिजूल खर्च हमें कुछ पल की खुशी तो देते हैं, लेकिन वास्वतिकता में इसके बाद हमारा हाथ खाली ही रहता है। योंकि ऐसा करकेहम सिर्फ गंवाते है, सृजन नहीं करते। जबकि इन पलों को खास बनाते हुए अगर हम धरती पर एकपौधा रोपते हैं, तो भविष्य में इसके सुखद परिणाम आना निश्चित है।
इस बारे में गढ़वाल विश्वविद्यालय में कार्यरत प्रो. डीआर पुरोहित कहते हैं कि इस आंदोलन को वह अंतरराष्ट ्रीय फेम नहीं मिल पाया, जिसकी इसको दरकार थी। सुखद होता अगर सरकार ने भी इस दिशा में थाे़डा प्रयास किया होता। लेकिन, ऐसा नहीं हो पाया। प्रो. पुरोहित आगे कहते हैं अभी भी देर नहीं हुई है, अगर हम ठान ने तो शुरूआत तो आज भी हो सकती है। ...और फिर यह धरती पराई तो नहीं, धरती हमारी मां है। हर संतान का कर्त्यव्य बनता है कि वह अपनी मां के जख्मों पर मरहम लगाए।