Friday, August 9, 2013

..तब बुरी लगती थीं पिताजी की कही बातें

उस वक्त पिताजी की कही बातें अकसर बुरी लगतीं, लेकिन उनके जाने के बाद अब हर कदम पर उनकी कमी खलती है। इसे एक पीढ़ी का अंतर कहें या कुछ और, लेकिन हम दोनों के बीच कुछ ऐसा ही था। अकसर पिता के साथ विचारों का टकराव होता। 

चार बहनों के बाद मैं घर में सबसे छोटा था। एक उम्र तक तो उनके सामने गर्दन तक नहीं उठाई। बारहवीं करने के बाद गांव से शहर (देहरादून) आया तो देखा दुनिया में बहुत कुछ है, जिसके बारे में न कभी सुना न देखा। सपनों को जैसे पंख लग गए। कालेज जाने के लिए साइकिल की डिमांड रखी तो पिताजी एक पुरानी परंपरागत साइकिल खरीदने को तैयार हो गए। लेकिन तब तक जमाना, हीरो रेंजर का आ चुका था। यहां पर भी विचारों का टकराव हुआ और आखिर जीत मेरी हुई। 14 सौ रुपये मेरी गुल्लक में निकले। पांच सौ रुपये पिताजी ने मिलाए और अगले दिन कैनन बैरल टॉप मॉडल साइकिल घर आ गई।

दो साल बाद बाइक की चाह मन में जाग गई। पिताजी के सामने प्रस्ताव रखना कठिन था। आखिर,  माता जी के मार्फत प्रस्ताव रात को खाने की टेबिल पर पहुंचा। कई दिनों तक इस पर मंथन चला। लेकिन बात स्कूटर पर आकर अटक गई। मैंने बाइक और स्कूटर के बीच लाख अंतर गिनाए, लेकिन जीत स्कूटर की हुई।

एम.एससी का स्टूडेंट था, अपनी आर्थिक जरूरतों को पूरा करने के लिए फोटोग्राफी करता था। फोटोग्राफरों की संगत में रहते-रहते कैमरों से जैसे प्यार हो गया। दूरदर्शन में उन दिनों (1998-99) बीटा कैन कैमरा इस्तेमाल किया जाता था। वही कैमरा मुझे पत्रकारिता में ले आया। कुछ दिन दूरदर्शन और एएनआई के साथ कैमरा भी चलाया और एंकरिंग भी की। कई पड़ावों को पार करते हुए आखिर प्रिंट मीडिया में रम गया। पिताजी चाहते थे अपने व्यवसायिक जीवन में मैं दस से पांच की नौकरी करूं। लेकिन मैं उनकी यह इच्छा पूरी नहीं कर सका।
जब पिताजी से आखिरी बार बात हुई…
शुक्रवार, 13 जुलाई, 2012 : दोपहर 1 बजे के आसपास पिताजी से फोन पर बात हुई। उन्होंने कहा, शनिवार-रविवार बच्चों की छुट्टी है, उन्हें घर (रानीपोखरी) लेकर आना। आंगन में खड़े पेड़ पर आम पकने लगे हैं। मिलकर खाएंगे। ‘अदिति स्कूल से घर आ गई होगी, उससे कहो, दादाजी ने उसके लिए चाकलेट लाकर रखी है, दादाजी से बात कर ले।’ लेकिन उस दिन अदिति ने दादाजी से बात नहीं की। मैंने कहा, मेरा तो कल ऑफिस है, बच्चों को भेज दूंगा, मैं रविवार सुबह आ जाऊंगा। …और हमारा वार्तालाप समाप्त हो गया।

इसके बाद ठीक डेढ़ बजे पड़ोस में रहने वाली निर्मला भाभी का फोन आया- ‘विनोद जल्दी से घर आ आ जा, पिताजी छत की सीढ़ियों से गिर गए हैं, उन्हें बहुत चोट आई है।’, ‘गांव वाले उन्हें लेकर अस्पताल जा रहे हैं, तू जल्दी पहुंच।’

अनहोनी की आशंका में मैंने जल्दी से कृष्णा (पत्नी) को फोन लगाया और तुरंत ऑफिस से घर पहुंचने को कहा। इतनी देर में आदित्य (बेटा) भी स्कूल से घर आ चुका था। आधे घंटे के भीतर हम घर के लिए निकल पड़े। देहरादून से चलकर डोईवाला मणीमाई मंदिर के पास ही पहुंचे थे, अनहोनी की आशंका सच साबित हुई और मुझे मेरे पिता की मृत्यु का समाचार मिला।

उनकी मृत्यु के एक साल बाद आज भी रात को सोते हुए उनका चेहरा मेरी आंखों के सामने आ जाता है। मन इस उधेड़बुन में उलझकर रह जाता है कि आखिर मेरे पिता की मृत्यु कैसे हुई। जब वे सीढ़ियों से गिरे थे तो उनके सिर पर चोट आई थी। काफी खून भी बहा था। लेकिन, मौके पर मौजूद लोगों ने कहा, पंडित जी को हार्टअटैक आया था, जिसकी वजह से वे सीढ़ियों से गिर गए थे। वे पहले ही तीन अटैक झेल चुके थे। 
पूरा हुआ एक साल का व्रत
मेरी चार साल की बिटिया बहुत खुश थी। उसकी खुशी की वजह भी बहुत खास थी। दादाजी की बरसी (1 अगस्त) पर उसने चहकते हुए बुआ, मामा, दादी, सभी से कहा- अब तो पापा मेरे बर्थडे पर बाहर से आया केक भी खा सकेंगे। …और किसी शादी में जाने के बाद घर आकर मम्मी को पापा लिए खाना नहीं बनाना पड़ेगा।

Wednesday, July 24, 2013

मैं देर करता नहीं, देर हो जाती है…

काल करे सो आज कर, आज करे सो अब पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगा कब

मेरे पिताजी भी अकसर इस बात को दोहराते थे। लेकिन, उनकी इस बात को हम भाई-बहन अकसर उल्टे चश्मे से देखते। अब अपने बच्चों को यही सीख देते हैं, तो वे भी भूतकाल को दोहराते नजर आते हैं। वक्त का फेर है, जिसकी पाठशाला में बात कभी जल्दी तो कभी देर में समझ आती है। कई बार इतनी देर हो जाती है, वक्त ही हाथ से निकल जाता है।

पहला वाकया मुरादाबाद का
तीन साल पहले ‘अमर उजाला’ मुरादाबाद में था। बच्चों से दूर अकेला रहता था। खूब समय था मेरे पास। आफिस के सीनियर साथी आशीष शर्मा जी केसाथ एक योगा सेंटर ज्वाइन कर लिया। रात को डेस्क पर काम करते हुए 2 बजे के आसपास छूटते थे। सुबह 10 बजे जब हम सेंटर पहुंचते, तब तक सभी लोग जा चुके होते थे। विशेष अनुरोध पर सेंटर संचालक इस समय पर हमें योग सिखाने को तैयार हुआ था।
खैर, चार महीने दोनों ने गिरते-पड़ते कोर्स कर लिया। काफी मशक्कत के बाद दोनों ने कुछ इंच पेट कम कर लिया। वजन में भी कमी आई। मैंने दो और आशीष जी ने अप्रत्याशित चार किलो वजन कम कर लिया। उस वक्त योगाचार्य ने कहा था, जितना मैंने तुम्हें सिखाया है, उसका आधा भी रोज कर लोगे, जिंदगी में कभी डाक्टर के पास जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। मन ने भी ठान लिया था, आगे योग जारी रहेगा। किराए के कमरे में नियमित योगाभ्यास किया जाने लगा। सुस्ती के कारण धीरे-धीरे इस समय में कटौती होने लगी। इसके बाद देहरादून ट्रांसफर हो गया। घर-गृहस्थी के पचड़ों में ऐसा फंसा, अब तक फिर शुरू नहीं कर सका। रोज सोचता हूं, कल से शुरू करूंगा…। लेकिन उत्साह का संचार फिर अगले दिन के झंझावतों के फेर में आकर ठंडा हो जाता है।

दूसरा वाकया ताजा-ताज है
केदारनाथ आपदा के बाद मन में प्रभावित क्षेत्रों में जाकर रिपोर्टिंग करने की इच्छा थी। डेस्क पर साथियों की कमी के चलते पहले तो संपादक जी से बात करने की हिम्मत ही नहीं हुई। फिर सोचा भेजें न भेजें, बात करने में क्या बुराई है, कल जरूर बात करूंगा। ऐसे करते-करते दो-तीन दिन निकल गए। जिस दिन मन पक्का करके आया, उसी दिन पता चला, संपादक जी दो साथियों को भेज चुके हैं। फिर मेरा वह कल दोबारा नहीं आया।

बहुगुणा जी ने भी देर कर दी
जो फावड़ा मुख्यमंत्री जी ने दो दिन पहले उठाया है, यही काम 15 दिन पहले कर लिया होता तो ज्यादा अच्छा होता। खैर, देर आए दुरुस्त आए… उनकी इस पहल को सकारात्मक रूप से देखा जाना चाहिए।

Wednesday, June 26, 2013

मैं ‘पहाड़’ हूं, पीड़ा में हूं...

देहरादून/विनोद मुसान | अंतिम अपडेट 25 जून 2013 6:17 PM IST पर

uttarakhand disaster
मैं ‘पहाड़’ हूं, पीड़ा में हूं। यूं तो मेरी छाती पर कई बार छेणी-हथौड़े चले। जेसीबी और गोला-बारूद से भी मेरा सीना कई बार छलनी हुआ। मैं चुप रहा...।लेकिन, इस बार पीड़ा हो रही है। नए तरह के जख्म मिले हैं, जिनका दर्द मैंने कभी महसूस नहीं किया। मुझ पर लूट-खसोट और सीनाजोरी का आरोप लगा है। कैसे सहन करूं।मेरे बच्चे आज भी जब गांव-गदेरों को लांघकर रोजगार की तलाश में दूर देश जाते हैं, ‘पहाड़’ शब्द का सर्टिफिकेट उनको पंक्ति में आगे खड़ा कर देता है। फिर किसी और की कारस्तानी का इलजाम कैसे मैं अपने सिर ले लूं। कुछ बिगड़ैलों के कारण आज मेरा पूरा परिवार बदनाम हो रहा है।

यात्राकाल में आई विभीषिका में देशभर से आए तीर्थयात्री ही हताहत नहीं हुए हैं। जल प्रलय ने पहाड़ के सैकड़ों घरों के दीप भी बुझा दिए हैं। घाटियों में रहने वाले जो लोग बचे हैं, उनके सामने जीते-जी मरने जैसी स्थिति पैदा हो गई है।सड़क, संचार, बिजली-पानी ने तो साथ छोड़ा ही, अब राशन भी खत्म होने को है। ऊपर से कुछ लोगों की कारगुजारी के बाद लूट-खसोट के जो इलजाम पहाड़ के लोगों पर लग रहे हैं, उससे लोग सबसे ज्यादा आहत हैं।
केदारघाटी में आई विपदा के बाद कुछ यात्रियों द्वारा एक समुदाय विशेष पर लूट-पाट और मारपीट के आरोप लगाए जा रहे हैं। स्थानीय दुकानदारों पर रोटी-पानी और अन्य जरूरी चीजों के दाम ज्यादा वसूले जाने के आरोप लग रहे हैं।
इस हकीकत से एकदम मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है। लेकिन, यह भी सत्य है पहाड़ ने अपना पेट काटकर कई लोगों की जिंदगी बचाई है। अभी तक शासन-प्रशासन ने लेकर सेना तक का पूरा ध्यान यात्रियों को सकुशल निकालने पर केंद्रित है।
कई-कई गांव भी आपदा का शिकार हुए हैं। जिनकी ओर कोई ध्यान नहीं दे रहा। वे बुरी स्थिति में हैं। उन्होंने इन हालात में भी मानव धर्म नहीं छोड़ा है। कई मुसाफिरों ने आपबीती में इस बात को स्वीकार किया, पहाड़ के लोग समय पर आसरा नहीं देते तो आज हम जिंदा न होते।
माटी का ढेर था बिखर गया, फिर जोड़ लेंगे...
यहां तो जिंदगी का पूरा ताना-बाना ही ताक पर लग गया है। तिनका-तिनका जोड़ जिन घरौदों को खड़ा किया, आधे उनमें से ध्वस्त हो गए, जो बचे हैं अब उनमें जिंदगी कितने दिन महफूज रहेगी, कोई नहीं जनता। माटी का ढेर था बिखर गया, फिर जोड़ लेंगे। लेकिन जिंदगीभर जिस साख के लिए जाने जाते रहे, उस पर कुछ लोगों ने सवाल उठाए हैं। यह ठीक नहीं है।
चंद लोगों ने ऐसा किया, लेकिन हकीकत यही है ज्यादातर लोगों ने अपना पेट काटकर आपदा में फंसे मुसाफिरों को बचाया है। जबकि अब उनके सामने खुद रोटी का संकट खड़ा है। जब हकीकत सामने आएगी सब जान जाएंगे, पहाड़ का आदमी देना जानता है, छिनना नहीं।

हमने कहा, चलो पुलिस के पास तो बंगले झांकने लगे

दो दिन पहले फोन पर एक मित्र ने उत्तरकाशी बाजार का एक किस्सा सुनाया। यहां यात्रा रूट पर स्थानीय लोगों द्वारा कई राहत कैंप लगाए गए हैं। ऐसे ही एक राहत कैंप में एक महिला-पुरूष ने स्थानीय लोगों पर उनके जेवर उतरवाने और बदसलूकी करने का आरोप लगाया।
मौके पर मौजूद 15-20 नौजवानों की मुट्ठियां तन गई। पहले तो युवकों ने कहा, चलो हम आपके साथ चलते है, किसने आपको लूटा है। लेकिन दंपति ने मना कर दिया। फिर लोग उन्हें लेकर थाने चलने लगे। थाने के बात सुनकर दंपति बंगले झांकने लगे और धीरे-धीरे भीड़ में इधर-उधर हो गए।