Tuesday, September 28, 2010

जो अतिथि दे वो भला

बालम सिंह गुसाईं
अतिथि देवो॒भवः की परंपरा का निर्वहन करते करते भारतीय अब थक चुके प्रतीत होते हैं। अतिथि को देवता समान मान उनकी सेवा करना तो अब किताबों कहानियाें में ही पढ़ने या सुनने को मिल जाए तो गनीमत समझिए। कुल मिलाकर आधुनिक इंडिया में नई परंपरा जन्म ले रही है वो है ‘अतिथि दे वो भला’। और जो न दे वो भूला ही सही।
कुछ विद्वान लोग इस परंपरा से खासे नाराज हैं, उनका मत है कि देश की संस्कृति, संस्कारों, परंपराओं को भूलना या उनसे छेड़छाड़ करना दंडनीय अपराध है। भला अब इन्हें कौन समझाए, पहले देश सोने की चिड़िया था, जिसे जरूरत महसूस होती उसे तब सोने के अंडे मुफ्त बांट दिए॒जाते, पर अब हालात बिलकुल बदले हुए॒हैं। यहां तो खुद भूखों मरने की नौबत आन पड़ी है, महंगाई के मारे सांसत में जान पड़ी है। ऐसे में भला हम किसी को क्या दें, जब खुद मांगने की नौबत आई हुई है। हालात यह हैं कि महीने में कई दिन तो पड़ोसियाें की चीनी, नमक से ही काम चलाना पड़ता है। ले देकर जो दिन कट जाए वो अच्छा, पर वापस देना भी तो पड़ता है। चालीस की चीनी लौटाना तो ठीक, अब तो नमक का भी हिसाब देना पड़ता है। जब नमक तक का हिसाब मांगा जाए, तो भला अतिथि की सेवा करने का जोखिम कौन उठाए।
आइये, अतिथि दे वो भला की नई परंपरा पर गौर फरमाइये.. क्या नेता, क्या अभिनेता, ये अतिथि ही हैं हर किसी के चहेता। एक जन बोला, भला इनमें ऐसा क्या है, जो चाचा-ताऊ अन्य संबंधियों में भी ना है। मैंने कहा, भैय्या यही तो आधुनिक परंपरा है, जिसका पलड़ा भरा है, वो अतिथि ही सेवा करवाने के पैमाने पर खरा है। नेता,अभिनेता भूले से भी किसी के यहां आते हैं तो उसकी बंद किस्मत का ताला खोल जाते हैं। कुछ और हो न हो कम से कम ऐसे अतिथियों के आने मात्र से चंद दिन तो फिर ही जाते हैं। पड़ोसी तो पड़ोसी, हर गली मुहल्ले और मीडिया तक में आप सम्मान पाते हैं। जिनके सगे-संबंधियों की जेबें खाली हैं तो उनके सत्कार के लिए हर घर में कंगाली है।
तसवीर का एक पहलू और है। जिसमें कहीं देश में विदेशियों के साथ अभद्रता, तो कहीं उन्हें पर्याप्त सम्मान नहीं दिए जाने का शोर है। कोई बार-बार पूछ रहा है, ये कैसा दौर है? वजह क्या है ये कौन समझाए! बेहतर होगा किताबी बातें छोड़ हकीकत पर गौर फरमाएं! कोई पूछे तो बताएंगे, बशर्ते घर आएंगे तो क्या लाएंगे... और जाएंगे तो क्या देकर जाएंगे

Monday, September 13, 2010

क्या देख रहे हैं देश के हुक्मरान यह पाक नहीं हमारी जमीं है हिंदुस्तान



विनोद के मुसान
ईद उल फितर के दिन श्रीनगर के लाल चौक पर जो कुछ घटा, उसे देखकर किसी भी सच्चे हिंदुस्तानी का खून खौल सकता है। लाल चौक पर खड़े एतिहासिक घंटाघर पर एक बारफिर पाकिस्तान का झंडा फहराया गया। कई सरकारी बिल्डिंगों को आग के हवाले कर दिया गया। वाहन फूंके गए और तोड़फोड़ की गई। मुबारक पर्व पर जितना हो सकता था सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाया गया। इससे ठीक पहले दहशतदर्गी फैलाने वाले यह सभी लोग ईद की नमाज अदा कर लौटे थे।
इस देश में रहकर दूसरे देश का झंडा फहराना, जिस थाली में खाना उसी में छेद करने जैसा है। अलगाववादी कुछ लोग कश्मीर की जनता को बरगला कर अपने नाकाम मनसूबों को अंजाम देने में लगे हैं। जिन नौजवानों के हाथों में किताबें होनी चाहिए थीं, उनके हाथों में सैन्य बलों को मारने के लिए ईंट और पत्थर दिए जा रहे हैं। मजहब के नाम पर उनकी जवानी को ऐसे अंधकार में धकेलने का काम किया जा रहा है, जहां से शायद ही वह कभी लौटकर वापस आ सकें।
देश का कोई नेता इन हालात को सुलझाने का प्रयास तक करता दिखाई नहीं दे रहा है। धर्मनिरपेक्षता की बात करने वाले और छोटी-छोटी बातों पर धरना प्रदर्शन करने वाले नेताओं की जुबान पर भी ऐसे मौके पर ताला लग जाता है। मीडिया की अपनी सीमाएं हैं। देश में अमन और शांति कायम रखने के लिए लाल चौक के उन दृश्यों को न दिखाने और मामूली कवरेज उस अघोषित रणनीति का हिस्सा होता है, जो लोकतांत्रिक देश की अखंडता के लिए जरूरी भी है।
कश्मीर में रोज खून की होली खेली जा रही है, सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाया जा रहा है। आम जनता के खून पसीने की गाढ़ी कमाई इस तंत्र को यथावत रखने में लुटाई जा रही है, लेकिन हश्र सबके सामने है। विकास की बात तो दूर, सर्वविनाश करने वाले लोगों को रोका तक नहीं जा रहा है। सब जानते हैं मुठ्ठीभर दहशतगर्द नेता इस माहौल के लिए जिम्मेदार हैं।
उन पर लगाम लगाई जानी चाहिए। साफ होना चाहिए, वे जिस थाली में रोटी खा रहे हैं, उसमें छेद करने की जुर्रत न करें। नहीं तो अपना काला मुंह वहीं जाकर करें, जिसका गुणगान यहां रहकर कर रहे हैं।