Friday, June 5, 2009

लोकतंत्र के उत्सव में दहकते रहे पहाड़



इधर पूरी सरकारी मशीनरी लोकसभा चुनाव में व्यस्त रही और उधर उत्तराखंड के तमाम पर्वतीय क्षेत्र केवन आग की चपेट में थे। पहाड़ों में सुलगती ज्वालाएं रोज अपार वन संपदा को लीलती रहीं, लेकिन आग को बुझाने की पहल नहीं की गई। चुनाव तो सकुशल निपट गया। लेकिन इस दौरान जलते जंगलों के बाद हुई क्षति को कौन पूरा करेगा, यह प्रश्न्न यक्ष बना हुआ है।  
विनोद के मुसान
पहाड़ गर्म हैं। देश भी गर्म है। वजह अलहदा है। देश में सियासी लू चल रही है तो पहाड़ों में आग पखवाड़े भर अपना दायरा बढ़ाती रही। इसका अहसास वहां सैर को जाने वालों को होता है जब दिन में कपड़ों पर गर्द पड़ती है और रात केअंधेरे में आसमान लाल लगता है। देखने में खूबसूरत लगने वाले रात के आसमान की हकीकत जानने केबाद जेहनी जु़डाव वाले लोग शायद ही उस रात सो पाएं। कहां गए होंगे वहां के जानवर? कितने पे़ड, कितने घोसले खाक हुए होंगे? आयोग की सख्ती से लोकतंत्र के सबसे बड़े उत्सव में जनता को राहत मिली, लेकिन यहां राहत कहां? इतने छोटे से लफ्ज की इतनी बड़ी तासीर, कि कल्पना में रात गुजर जाए। 
होश संभलने के दौरान आपने भी कहानी पढ़ी होगी जिसमें कोर्ट में पेश एक नासमझ वकीलों के तमाम तर्कों के बावजूद नहीं मान पाता कि दो बोल्ट खोलने से ट्रेन भला कैसे पलट सकती है। उसने तो मछली पकड़ने के जाल में बांधने केलिए रेल पटरी से दो नट-बोल्ट खोले थे। ऐसा तो उसके बस्ती वाले अ सर करते थे। उसे सजा मिलती तो है लेकिन अपराध को वह समझ ही नहीं पाता। ठीक उसी तरह जब उत्तराखंड के बाशिंदों से जाना कि हर साल लगती है आग, लेकिन इस बार लगाने वाले ने यह सोचा भी नहीं होगा कि बुझाने वाले ही नहीं मिल पाएंगे। 
उत्तराखंड में रात को सफर करते समय ऊंची-ऊंची पहाड़ियों से उठने वाली लपटें किसी को भी अपनी ओर आकर्षित कर सकती हैं, लेकिन काल की माफिक अपार वन संपदा और वन्य जीवन को लीलने वाली इन लपटों की हकीकत जानने के बाद किसी का भी मन उद् विगन हो सकता है। तपती गरमी में दिन के समय जलते जंगलों से उठने वाला धुआं और हवा के साथ गिरने वाली राख पूरे वातावरण को दूूषित बना देती है। 
देवभूमि कहे जाने वाले इस छोटे से प्रदेश की वन संपदा खतरे में हैं। खतरा इतना बड़ा है कि इसकी कल्पना नहीं की जा सकती है। पूरे प्रदेश के जंगल इन दिनों आग की चपेट में हैं। हर तरफ बस आग की लपटें दिखाई देती हैं। शासन और प्रशासनिक मशीनरी को सबकुछ दिखाई दे रहा था, लेकिन वह पहले लोकतंत्र के महाकुंभ में व्यस्त थी और अब खुमारी उतारने में। आम आदमी दुनियादारी के झंझटों में इतना उलझा है कि वह इन दृश्यों को देखकर भी अनदेखा कर देता है। 
पिछले दिनों एक शादी समारोह में टिहरी गढ़वाल जाते हुए तपते पहाड़ों को देखकर मन में एक अजीब सी उदासी छा गई। लगा मेरे सामने मेरा घर जल रहा है और मैं कुछ नहीं कर पा रहा हूं। थक-हार कर आपातकालिन सेवा नंबर पर फोन किया। एक नहीं कई बार फोन किया। हर बार एक ही जवाब आया। हमने आपकी शिकायत दर्ज कर ली है। फलां थाने को इसकी सूचना दे दी गई है। संबंधित अधिकारियों का नंबर मांगने पर पहले तो असमर्थता जता दी गई। बाद में नंबर उपलब्ध हुआ तो जवाब मिला, साहब इन दिनों चुनाव में व्यस्त हैं, कुछ नहीं कर सकते। मन खिन्न हो गया। वन विभाग के अधिकारियों से संपर्क किया गया, तो टका का जवाब मिला, 'हम कोशिश कर रहे हैं।` 
यह वही विभाग है, जो किसी ग्रामीण को एक गट्ठर चूल्हे की लकड़ी ले जाते पकड़ ले तो उस पर अच्छा-खासा जुर्माना कर देता है। पर यहां तो पूरे के पूरे जंगल खाक हो रहे हैं। तमाम पशु-पक्षी मारे-मारे फिर रहे हैं। वनाषौधियां नष्ट हो रही हैं। भूमि में जल संरक्षित करते वाले श्रोत खत्म हो रहे हैं। पूरी प्रकृति ही अपना श्रंगार खो रही है। 
टिहरी जिले की भिलंगना रेंज, भागीरथी रेंज, पोखाल, जगधार, चंबा केवन, सुरसिंहधार, प्रतापनगर, बाल गंगा रेंज, नैलचामी डाडां, घनसाली ब्लाक, देवप्रयाग और श्रीनगर के बीच में पड़ने वाले तमाम जंगल, नई टिहरी के आस-पास केवन, पटीयाली गांव केसामने की पहाड़ियां कुछ ऐसी जगह थीं, जो आग की लपटों में घिरी थी। 
यह वही जिला है, जहां से अभी कुछ दिन पहले पर्यावरण केनाम पर एक शख्स राष्ट ्रीय सम्मान पद् मविभूषण लेकर लौटे हैं। मैं बात कर रहा हूं उस जानी-मानी हस्ती की, जिसे लोग अंतर्राष्ट ्रीय ख्याति प्राप्त शख्सियत सुंदर लाल बहुगुणा के नाम से जानते हैं। मन में एक सवाल उठा, 'बहुगुणा जी, आप तो नई टिहरी में निवास करते हैं, जहां से दूर-दूर तक हिमालय केदर्शन होते हैं, दिन नहीं तो रात में तो आपको जलते जंगलों से उठती लपटे जरूर दिखाई देती होंगी, आप कुछ करते यों नहीं?` 'अगर ये पहाड़ यूं ही तपते रहे, कहां रहेगा पर्यावरण और कहां जाएंगे पर्यावरणविद् ?`
यहां निवास करने वाले आम आदमी से इस विषय में बात करने पर सौ में से नब्बे लोगों का एक ही जवाब होता है, 'जंगलात वाले जंगलों में खुद आग लगाते हैं।` कारण पूछने पर बताते हैं, इसके बाद होने वाली मोटी कमाई, जो उन्हें ऐसा करने के लिए उकसाती है। जलते जंगलों की आग शांत करने के लिए जारी होने वाला मोटा बजट और इसके बाद प्लानटेशन के नाम पर होने वाली खानापूर्ति से छोटे कर्मचारी से लेकर बड़े अधिकारी तक अपना पेट भरते हैं।` हकीकत कुछ भी हो, लेकर इस स्याह सच को झुठलाया नहीं जा सकता कि जंगल जल रहे हैं और धुआं वहीं उठता है, जहां आग लगी हो। 
ऐसा नहीं है कि इस आपदा को लेकर पहाड़ का हर शख्स मौन हो, कुछ ऐसे कर्मठ लोग भी यहां मौजूद हैं, जिन्होंने गांव केआस-पास केजंगलों में आग को कभी फटकने भी नहीं दिया। उन्होंने इन जंगलों को अपने बच्चे की तरह पाला है। टिहरी जिले के हिंडोलाखाल ब्लाक में मां चंद्रबदनी देवी मंदिर केनीचे निवास करने वाले कई गांव ऐसे हैं, जो इस मुहिम को जनांदोलन का रूप दिए हैं। कैंथोली, करास, पुजार गांव और आस-पास के कुछ अन्य गांव इसका ज्वलंत उदाहरण हैं। आस-पास आग की एक छोटी सी चिंगारी पर भी पूरे गांव के लोग इकट् ठा होकर उसे शांत कर देते हैं। इन गांवों केआस-पास फैले घने बांज और चीड़ के जंगल खुद इनकी रक्षा करने वालों के हौसले की दाद देते हैं। 
यहां के लोगों का मानना है, 'ये सिर्फ जंगल नहीं, हमारे माता-पिता हैं, जो हमें अपनी गोद में पालते हैं, जिस दिन इनका अस्तित्व समाप्त हो जाएगा, ये पहाड़ भी रहने लायक नहीं रहेंगे। अगर व त रहते लोग नहीं चेते तो पहाड़ बिन जंगल ठीक उस विधवा की तरह दिखेंगे, जिसकेमाथे का सिंदूर मिट चुका होता है।`

नोट - यह लेख 24 मई को 'कांपे ट` (अमर उजाला संस्करण) में संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित हो चुका है। 

1 comment:

swadesh kumar said...

kya baat hai lage raho