Saturday, July 19, 2008

जब मैंने खोली पोल

मैं उस समय दसवीं कक्षा का छात्र था। स्कूल में एक दिन गुरुजी ने बताया कि सरकार ने ग्रामीण अशिक्षित लोगों को शिक्षित करने के लिए सर्व शिक्षा अभियान शुरू किया है। जो बच्चे इसमें भागीदारी करना चाहें, वे अपना नाम लिखवा सकते हैं। उन्होंने स्कीम की विस्तृत जानकारी दी और साथ ही यह भी बताया कि इस अभियान में सफल भागीदारी करने वाले बच्चों को सरकार द्वारा विशेष तौर पर प्रोत्साहित किया जाएगा। इतना ही नहीं इस काम के लिए पठन सामग्री भी सरकार ही उपलब्ध कराएगी। योजना का खाका अपने दिमाग में बिठा मैंने सबसे पहले अपना नाम लिखवा लिया। मुझे पता था मेरी गांव में खासकर २० से ३० महिलाएं ऐसी थी, जिन्हें अपना नाम भी लिखना नहीं आता था। सोचा पढ़ाई से अलग कुछ काम है, मजा आएगा और स्कूल में गुरुजी की शाबासी भी मिलेगी। सरकार या प्रोत्साहित करेगी, उस उम्र में इतना सोच पाना शायद मेरी समझ से बाहर था। लेकिन, फिर भी मैं उत्साहित था। अगले ही दिन से मैं काम में लग गया। स्कूल से किताबें, कापियां, स्लेट, ब्लैकबोर्ड और कुछ चार्ट (सभी वस्तुएं किसी भी एक केंद्र को चलाने के लिए ब्लाक स्तर पर उपलब्ध कराई जाती थी) ले आया। गांव में घर-घर जाकर बड़े-बू़ढों का समर्थन हासिल कर करीब २५ महिलाआें को केंद्र में आने के लिए राजी कर लिया। समय भी उनकी सुविधानुसार चुना गया, जब वे शाम को घास-दूध से निपट जाती थी और खाना बनाने में कुछ समय बाकी होता था। उत्साह पूर्वक मैंने केंद्र शुरू कर दिया। इसके बाद करीब चार माह तक अपनी बड़ी बहन के साथ मिलकर मैंने उत्साहपूर्वक केंद्र चलाया और इसके परिणाम भी सकारात्मक रहे। केंद्र में आने वाली लगभग सभी महिलाएं अपना नाम लिखना सिख चुकी थी। इतना ही नहीं कई महिलाआें ने अपेक्षाकृत परिणाम दिए और वे अक्षरों को जाे़डकर पढ़ने भी लगी। दूध का हिसाब कैसे रखा जाता है, बाजार में सामान को मोल भाव कैसे किया जाता है और बच्चों से हिसाब कैसे लिया जाता है, तमाम बुनियादी बातों को मैंने उन्हें सिखाने का प्रयास किया और काफी हद तक सफल भी हुआ।
ये थी मेरी रुचि की कहानी, जिसने मुझे परम सुख दिया। मैं अपने काम से खुश था। गांव में मुझे इस काम के लिए सभी की शाबासी और इज्जत मिली। लेकिन ये कहानी यहीं खत्म नहीं होती।
योजना का पहला चरण खत्म होने के बाद उस दिन ब्लाक ऑफिस में एक कार्यक्रम आयोजित किया गया था। जिसमें डीएम से लेकर तमाम प्रशासनिक अधिकारी मौजूद थे। समारोह में योजना में शामिल लोगों और बच्चों के अनुभव साझा किए जाने थे, इसके अतिरि त उन बच्चों को पुरस्कृत किया जाना था, जिन्होंने इस काम में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। सभी लोगों ने मंच पर चढ़कर अपनी बात कही। इसके बाद हमारे स्कूल की बारी आई। मेरी गुरुजी ने मुझे अपनी बात कहने के लिए मंच पर भेज दिया। किसी जलसे में मंच पर चढ़कर माइक पर बोलना मेरे लिए पहला अनुभव था। मेरी टांगे कांप रही थी और माथे पर पसीना आ रहा था। माइक हाथ में लिया तो वह भी कांपने लगा। समझ में नहीं आ रहा था कहां से शुरू करूं। पीछे से किसी ने मेरी स्थिति भांपते हुए तुरंत मुझे एक पानी का गिलास पकड़वा दिया। जिसे मैं एक सांस में पी गया। पानी ने जैसे टॉनिक का काम किया और फिर मैंने बोलना शुरू किया। शुरूआत की भूमिका के बाद मैं रौ में बहता चला गया और बहुत कुछ कह गया। लेकिन बात वहां पर अटक गई, जब मैंने कहा इन पूरे चार महीनों के दौरान कोई अधिकारी या इस योजना से जु़डा कोई व्यि त केंद्र पर झांकने तक नहीं आया। आशय यह था कि सरकार ने तमाम पठन सामग्री तो बांट दी, लेकिन उसका सही इस्तेमाल भी हो रहा है या नहीं इसे देखने वाला कोई नहीं था। तमाम उच्च अधिकारियों के सामने अपनी पोल खुलती देख निचले दर्जें के अधिकारी या शायद कर्मचारी में से कोई बीच में ही बोल उठा 'बेटा हम आए थे, तमाम सेंटर चेक किए जाते थे`। इसी बीच मेरे मुंह से कुछ ऐसा निकला, जिसने व्यवस्था को लेकर मेरे अंदर जमा हुए गुस्से का खुलेआम इजहार कर दिया। ज्वालामुखी फूट पड़ा और मेरे मुंह से निकला 'घंटा आया था कोई`। इसके बाद जो हुआ, वह कुछ अजीब था और कुछ सुखद। अजीब यूं कि पंडाल में बैठे सभी लोग हंसने लगे और मेरे गुरुजनों का सिर झुक गया और सुखद यूं हुआ कि इसके बाद डीएम साहब ने उसी 'घंटे` को केंद्रबिंदु बनाकर उ त योजना से जु़डे सभी लोगों की लंबी-चाै़डी लास ली और मुझे मंच पर सच्चाई रखने के लिए लगे हाथ बधाई भी दे डाली। व्यवस्था को लेकर कच्ची उम्र में उभरे उस रोष का भले ही मैंने मंच पर इजहार कर दिया था, लेकिन यकिन मानिए किसी की पोल खोलना उस व त मेरा मकसद नहीं था।

2 comments:

RAJNI CHADHA said...

sach bolne ki himmat har kisi main nahi hoti bo bi sab ke samne. good

nishant singhi said...

Vinod Bhai SirF Dibi hi dikai de rahi hai kuch samaj nahin aaraha