Thursday, November 6, 2008

अंतर्मन

यूं ही अंतर्मन में डूबा था एक दिन ये मन
कुछ अजीब सी उलझन लिए
तभी पीछे से किसी ने आवाज दी
लगा जैसे कोई अपना ही है
पीछे मुड़कर देखा
तो कोई न था
अपनी ही परछाई खड़ी थी
वही विशालकाय रूप लिए
सम्मोहन जैसा कुछ न था
फिर भी साथ थी वह मेरे
अपना अस्तित्व तलाशती
और मेरे साथ जुड़े होने का अहसास
अंतर्मन की उलझन
मैं और मेरी परछाई
तीनो साथ होकर भी
मानो अकेले थे
फिर करवां भी गुजर गया
सामने से मेरे
और मैं तनहा रहा खड़ा
जब तक परछाई थी साथ मेरे
अपना अस्तित्व तलाशती
सन्नाटा बढ़ता चला गया
और वह अंर्तध्यान हो गई
फिर वही संकोच लिए
मैं, मेरी परछाई और वह संन्नाटा
कुछ अजीब सी उलझन लिए

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