Thursday, November 6, 2008

उलझन

राह में बिखरे थे फूल तुम्हारे
तुमने कांटे यों चुन लिए
कभी उनसे तो पूछा होता
या वो भी चुभन महसूस करते हैं
आंखों से यूं न बहाओ आस का दरिया
देखो कहीं इसमें कोई डूब न जाए
चले ही यों जाते हो उस राह पर
जहां मंजिल का पता नहीं
या तुमने पीछे मुड़कर देखा है
कोई तुम्हारे साथ है भी या नहीं
शाम ढले तो घर चले आना
ये सोच कर कि कल फिर जाना है
कभी अकेले तो कभी
यादें उनकी साथ लेकर
फिर वापस आना है

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