Thursday, March 25, 2010

भारी पड़ेगी मां के गर्भ से छेड़छाड़

राजीव पांडेय

प्रकृति पर पूरी तरह निर्भर रहकर ही मनुष्य जीवित नहीं रह सकता यह अटूट सत्य है। जीने के लिए हमें कई बार प्रकृति के विपरीत जाकर भी काम करने पड़ते हैं। लेकिन इस सत्य को भी नहीं नकारा जा सकता कि प्रकृति के साथ अनावश्यक छेड़छाड़ निश्चित रूप से जानलेवा होगी। पर, इन सबसे बेपरवाह प्रकृति के साथ बारबार बलात्कार करना मनुष्य की फितरत बन गई है।
विकास की आड़ में प्राकृतिक संतुलन बिगाडऩा मनुष्य अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझने लगा है। इसकी गंभीरता इंसानों के बन रहे क्लोन से पता लगती है। सरोगेसी तकनीक ने मां-बेटे के बीच स्थापित माप-दंडों के मूल्य को शून्य कर दिया है। अब मां का गर्भाशय एक थैली बनकर रह गया है। पैसे के दम पर कोई भी कोख को किराये पर ले सकता है। भ्रूण हत्या की परिणति हम वर्ष 2005 में आई मनीष झा की फिल्म 'मातृभूमि ’ में देख चुके हैं। इन सबके बीच अब एक नया ट्रेंड विकसित हुआ है जो मनुष्य की विकृत हो चुकी मानसिकता की ओर संकेत करता है। यह चलन दक्षिण से चलकर उत्तर भारत के शहरों तक पहुंचा है। इसमें प्रकृति के साथ छेड़छाड़ का कारण एक तरफ अंधविश्वास है तो दूसरी ओर डाक्टरों की पैसा कमाने की भूख। कई मां-बाप भू्रण के पुष्टï होने से पहले ही ऑपरेशन के जरिए उसे बाहर निकाल दे रहे हैं। कई मामलों में आधुनिक दवाइयों और इंजेक्शनों के माध्यम से प्रसव को रोक दिया जा रहा है। प्रसव का यह समय ज्योतिष से पूछकर नियत किया जाता है ताकि ग्रहों की चाल के अनुसार बच्चा पैदा हो और दुनिया पर राज करे। जबकि चिकित्सक इसे केवल इसलिए बढ़ावा दे रहे हैं क्योंकि ऑपरेशन के माध्यम से होने वाले प्रसव में उनकी कमाई सामान्य प्रसव की तुलना में 20 हजार रुपये से अधिक होती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन भी चिकित्सकों की इस मनसा का खुलासा कर चुका है।
डब्लूएचओ की हालिया रिपोर्ट से पता चलता है कि भारत में डॉक्टरों द्वारा गर्भवती महिलाओं के प्रसव के लिए किए जाने वाले ’यादातर ऑपरेशन का मां और बच्चे की सेहत से कोई लेना-देना नहीं है यह केवल पैसा कमाने की तरकीब हैं। इसी का परिणाम है कि हर पांच में से एक प्रसव ऑपरेशन के जरिए किया जा रहा है। रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2007-08 में भारत, चीन, श्रीलंका, जापान और नेपाल समेत नौ एशियाई देशों में ऑपरेशन के जरिए प्रसव मेें 27 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गई है। भारत में यह वृद्धि 18 प्रतिशत है जबकि चीन में इस तरह के मामले से सबसे अधिक देखे गए हैं। दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों में ऑपरेशन के जरिए प्रसव कराने की दर में पांच से 65 प्रतिशत तक की वृद्धि हुई है। भारत में ऑपरेशन के जरिए प्रसव कराने की सूची में अव्वल हैं गुजरात, मध्य प्रदेश और दिल्ली जबकि सरोगेसी के सबसे अधिक मामले भी गुजरात में ही होते हैं। डब्लूएचओ के अनुसार ऑपरेशन से प्रसव कराने के 15 प्रतिशत के मान्य स्तर के ऊपर के मामले आपात स्थिति में ऑपरेशन की जरूरत के लिए नहीं, बल्कि पैसे बनाने के लिए किए जाते हैं।
स्वास्थ्य विशेषज्ञों का मानना है कि गर्भवती महिलाओं को इस तरीके से प्रसव से बचने का प्रयास करना चाहिए, क्योंकि सामान्य प्रसव की तुलना में इस प्रक्रिया में मातृ मृत्यु, शिशु मृत्यु, आईसीयू की नौबत आने के अलावा रक्त चढ़ाने आदि की समस्याएं आ सकती हैं। जबकि मां के गर्भ में पल रहे भ्रूण को परिपक्व होने से पूर्व निकालना या फिर दवाइयों के दम पर उसे रोक देना और भी घातक हो सकता है। इससे मां और बच्चे दोनों की जान के लिए खतरा बना रहता है। इस तरह पैदा हुए बच्चों को अक्सर सांस लेने में खासी दिक्कत होती है और एक परिपक्व शरीर न बन पाने के कारण कई बार वह आंख खोलने से पहले ही मौत के मुंह में होते हैं। पुरुष प्रधान समाज में मां की कोख केसाथ छेड़छाड़ की यह विकृति अब पूरे भारत में फैल रही है। करीब एक दशक पूर्व दक्षिण के राज्य आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु से शुरू हुआ यह सफर अब उत्तर भारत केछोटे-छोटे शहरों को भी अपनी चपेट में ले रहा है। देहरादून, कानपुर, लखनऊ जैसे शहरों में भी लोग इस तरह का दुस्साहसिक कदम उठाने से परहेज नहीं कर रहे हैं। यह वह शहर हैं जहां नियोनेटल केयर की सुविधा उपलब्ध नहीं है। नियोनेटल के जरिए कोख से बाहर भी बच्चे को विकसित किया जा सकता है। भारत केकुछ ही महानगरों में अभी यह सुविधा पूरी तरह उपलब्ध है लेकिन कोख छेड़छाड़ पूरे देश में हो रही है। जिसके लिए मां और बच्चे की जान को खतरे में डालने से भी लोग गुरेज नहीं कर रहे।
ऐसा नहीं कि गर्भ में भू्रण का पता लगाने की इच्छा नई है। यह रीत वैदिक काल से चली आ रही है। लेकिन तब मां की कोख से छेड़छाड़ नहीं की जाती थी। आयुर्वेद में इच्छित संतान की प्राप्ति के उपायों को पुंसवन कर्म कहा गया है। यह कर्म मां के गर्भ में भ्रूण के लिंग निर्धारण से पूर्व विशेष काल और विधि के अनुसार किया जाता था। इसमें स्त्री के लक्षणों को देखकर जड़ी-बूटी या अन्य प्रक्रियाओं के माध्यम से लिंग निर्धारण के प्रयास किए होते थे। महर्षि सुश्रुत और वाणभट्टï ने भी इस प्रकार के लक्षणों का वर्णन करते हुए लिखा है कि जिस स्त्री के दक्षिण स्तन में पहले दुग्ध की उत्पति हो, दक्षिण आंख भरी हो, जो दाहिने पैर को उठाकर चलती हो, जिसका मुख वर्ण प्रसन्न हो वह पुत्र उत्पन्न करेगी। जबकि इसके विपरीत लक्षण वाली स्त्री कन्या को जन्म देती है।
आधुनिक विज्ञान में यह शोध का विषय है। पर, यह तय है कि इस प्रक्रिया से मां और बच्चे के जीवन को कोई खतरा नहीं होता था। लेकिन आज आधुनिक चिकित्सा के गुमान, चिकित्सकों की पैसे की भूख और हमारे अंधविश्वास ने सारे नियमों को तोड़ गर्भ में हाथ डालने की कोशिश शुरू कर दी है। इसके गंभीर परिणाम विकृत मानव के रूप में हमारे सामने होंगे।

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